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ठाणं (स्थान)
भासंपिय से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच देवा अणुत्ता चेव अतिमा बहुं देवे ! भासउ
भासउ ।
ततो देवलगाओ आउक्खएणं भवक्खणं ठितिक्खएणं अनंतरं चयं चत्ता इहेव माणुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई भवंति तं जहा—
अंतकुलाणि वा पंतकुलाणि वा तुच्छकुलाणि वा दरिद्दकुलाणि वा भिक्खाकुलाणि वा विणकुलाणि वा, तहपगारे कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाति ।
सेणं तत्थ मे भवति दुवे दुवण्णे गंधे से फासे अणि अकंते अपि अमणे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे अणिट्टस्सरे अकंतस्सरे अपियस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणाज्जवयणे पच्चायाते ।
जावि य से तत्थ बाहिरब्भतरिया परिसा भवति, सावि य णं णो आढाति णो परिजानाति णो महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, भासंपि य से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अणुत्ता चैव अट्ठतिमा बहुं अज्जउत्तो !
भासउ भासउ ।
मायी गं मायं कट्टु आलोचित पक्कि कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति तं जहा
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माणस्य यावत् चत्वारः पञ्च देवाः अनुक्ताश्चैव अभ्युत्तिष्ठन्तिमा बहु देवः भाषतां भाषताम् ।
स ततः देवलोकात् आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा इहैव मानुष्यके भवेयानि इमान कुलानि भवन्ति, तद्यथा—
अन्तकुलानि वा प्रान्त कुलानि वा तुच्छकुलानि वा दरिद्रकुलानि वा भिक्षाककुलानि वा कृपणकुलानि वा तथाप्रकारेषु कुलेषु पुंस्त्वेन प्रत्यायाति ।
स तत्र पुमान् भवति दुरूपः दुर्वर्णः दुर्गन्धः दूरसः दुःस्पर्शः अनिष्टः अकान्तः अप्रियः अमनोज्ञः अमनआपः हीनस्वरः दीनस्वरः अनिष्टस्वरः अकान्तस्वरः अप्रियस्वरः अमनोज्ञस्वर: अमन आपस्वरः अनादेयवचनः प्रत्याजातः ।
यापि च तस्य तत्र बाह्याभ्यन्तरिका परिषद् भवति, सापि च नो आद्रियते तो परिजानाति नो महार्हेन आसनन उपनिमन्त्रयते, भाषामपि च तस्य भाषमाणस्य यावत् चत्वारः पञ्च जना:
अनुक्ताः चैव अभ्युत्तिष्ठन्ति मा बहु आर्यपुत्र ! भाषतां भाषताम् ।
मायी मायां कृत्वा आलोचित प्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्ता भवति, तद्यथा—
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स्थान ८: सूत्र १०
जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तब चार-पांच देव बिना कहे ही खड़े होते हैं। और कहते हैं - 'देव ! अधिक मत बोलो, अधिक मत बोलो।'
वह देव आयु, भव और स्थिति के क्षय होने के अनन्तर ही देवलोक से च्युत होकर इसी मनुष्य भव में अन्तकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, भिक्षाककुल, कृपणकुल तथा इसी प्रकार के कुलों में मनुष्य के रूप उत्पन्न होता है ।
वहां वह कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध, अनिष्ट रस और कठोर स्पर्श वाला होता है। वह अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज और
के लिए अगम्य होता है। वह हीनस्वर, दीनस्वर, अनिष्टस्वर, अकान्तस्वर, अप्रियस्वर, अमनोज्ञस्वर, अरुचिकरस्वर, और अनादेय वचन वाला होता है।
वहां उसके बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है । परन्तु इन दोनों परिषद् के सदस्य न उसको आदर देते हैं. न उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं, न महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमन्त्रित करते हैं। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तब चार-पांच मनुष्य बिना कहे ही खड़े होते हैं और कहते हैं - आर्यपुत्र ! अधिक मत बोलो, अधिक मत बोलो।'
मायावी माया करके उसकी आलोचनाप्रतिक्रमण कर मरणकाल में मृत्यु को पाकर किसी एक देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होता है । वह महान ऋद्धि वाले, महान् द्यति वाले, वैकिय आदि शक्ति से युक्त, महान् यशस्वी, महान् बल वाले, महान् सौख्य वाले, ऊंची गति वाले और लम्बी स्थिति वाले देवों में उत्पन्न होता है।
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