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स्थान ८ : सूत्र १०
ठाणं (स्थान)
७६३ महिड्डिएसु •महज्जुइएसु महाणु- महद्धिकेषु महाद्युतिकेषु महानुभागेषु भागेसु महायसेसु महाबलेसु महा- महायशस्सु महाबलेषु महासौख्येषु सोक्खेसु दूरंगतिएसु' चिरट्ठि- दूरंगतिकेषु चिरस्थितिकेषु । तिएस। से णं तत्थ देवे भवति महिट्टिए स तत्र देवो भवति महद्धिक: •महज्जुइए महाणुभागे महायसे महाद्युतिक: महानुभाग: महायशाः महाबले महासोक्खे दुरंगतिए• महाबल: महासौख्यः दूरंगतिक: चिरचिरहितिए हारविराइयवच्छे स्थितिक: हारविराजितवक्षाः कटककडक-तुडितथंभितभूए अंगद- त्रुटितस्तंभितभुजः अङ्गद-कुण्डल-मृष्टकुंडल मढगंडतलकण्णपीढधारी गण्डतलकर्णपीठधारी विचित्रहस्ताविचित्तहत्याभरणे विचित्त- भरणः विचित्रवस्त्राभरणः विचित्रवत्थाभरणे विचित्तमाला- मालामौलिः कल्याणकप्रवरवस्त्रमउली कल्लाणगपवरवत्थ- परिहितः कल्याणकप्रवरगन्धपरिहिते कल्लाणगपवर-गंध माल्यानुलेपनधरः भास्वरबोन्दी प्रलम्बमल्लाणु लेवणधरे भासुरबोंदी वनमालाधर: दिव्येन वर्णन दिव्येन पलंबवणमालधरे दिव्वेणं वण्णेणं गन्धेन दिव्येन रसेन दिव्येन स्पर्शन दिव्वेणं गंधणं दिव्वेणं रसेणं दिव्येन संघातेन दिव्येन संस्थानेन दिव्यया दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघातेणं ऋद्धया दिव्यया द्युत्या दिव्यया प्रभया दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्यया छायया दिव्यया अच्चिषा दिव्येन दिव्वाए जुईए दिव्वाए पभाए तेजसा दिव्यया लेश्यया दश दिशः दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए उद्योतयमानः प्रभासयमानः महताऽऽहतदिवेणं तेएणं दिव्वाए लेस्साए दस नृत्य-गीत-वादित-तन्त्री-तल-ताल-तूर्यदिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे घन-मृदङ्ग-पटुप्रवादित-रवेण दिव्यान् महयाहत-गट्ट-गीत-वादित-तंती- भोगभोगान् भुजानः विहरति । तल-ताल-तुडित-घणमुइंग-पडुप्पवादितरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ। जावि य से तत्थ बाहिरभंतरिया यावि च तस्य तत्र बाह्याभ्यन्तरिका परिसा भवति, सावि य णं आढाइ परिषद् भवति, सापि च आद्रियते परिजाणाति महरिहेणं आसणेणं परिजानाति महान आसनेन उवणिमंतेति, भासंपि य से भास- उपनिमन्त्रयते, भाषामपि च तस्य भाषमाणस्स जाव चत्तारि पंच देवा माणस्य यावत् चत्वारः पञ्च देवा अणुत्ता चेव अब्भुटुंति—बहुं देवे ! अनुक्ताश्चैव अभ्युत्तिष्ठन्ति-बहु देव ! भासउ-भासउ।
भाषतां-भाषताम्।
वह महान् ऋद्धिवाला, महान् द्युतिवाला, वैक्रिय आदि शक्ति से युक्त, महान् यशस्वी, महान् बल वाला, महान् सौख्य वाला, ऊंची गति वाला और लम्बी स्थिति वाला देव होता है। उसका वक्ष हार से शोभित होता है। वह भुजा में कड़े, त्रुटित और अंगद [बाजूबन्द] पहने हुए होता है। उसके कानों में लोल तथा कपोल तक कानों को घिसते हुए कुण्डल होते हैं। उसके हाथ में नाना प्रकार के आभूषण होते हैं। वह विचिन वस्त्राभरणों, विचित्र मालाओं व सेहरों, मंगल व प्रवर वस्त्रों को पहने हुए होता है। वह मंगल और प्रबर सुगन्धित पुष्प तथा विलेपन को धारण किए हुए होता है। उसका शरीर तेजस्वी होता है। वह प्रलम्ब वनमाला [आभूषण] को धारण किए हुए होता है। वह दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श, दिव्य संघात [शरीर की बनावट], दिव्य संस्थान [शरीर की आकृति ] और दिव्य ऋद्धि से युक्त होता है। वह दिव्यधुति" दिव्यप्रभा, दिव्यछाया, दिव्यअचिं, दिव्यतेज
और दिव्यलेश्या२ से दशों दिशाओं को उद्योतित करता है, प्रभासित करता है। वह आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए हुए वादिन, तन्त्री, तल, ताल, त्रुटित, धन और मृदङ्ग की महान् ध्वनि से युक्त दिव्य भोगों को भोगता हुआ रहता है।
उसके बाह्य और आभ्यन्तर दो परिषदें होती हैं। दोनों परिषदों के सदस्य उसका आदर करते हैं, उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं और उसे महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते हैं। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तब चार-पांच देव बिना कहे ही खड़े होते हैं और कहते हैं-'देव ! और अधिक बोलो, और अधिक बोलो।'
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