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स्थान ८: सूत्र ११
वह देव आयु, भव, और स्थिति के क्षय होने के अनन्तर ही देवलोक से च्युत होकर इसी मनुष्य भव में आढ्य, दीप्त तथा विस्तीर्ण और विपुल भवन, शयन, आसन, यान और वाहन वाले, बहुधनबहुस्वर्ण तथा चांदी वाले, आयोग और प्रयोग [ऋण देने] में संप्रयुक्त, प्रचुर भक्त-पान का संग्रह रखने वाले, अनेक दासी-दास, गाय-भैंस, भेड़ आदि रखने वाले और बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित--ऐसे कुलों में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है।
ठाणं (स्थान)
७६४ से गं ताओ देवलोगाओ स ततः देवलोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण आउक्खएणं 'भवक्खएणं ठिति- स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा इहैव । क्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव मानुष्यके भवे यानि इमानि कुलानि माणुस्सए भवे जाइं इमाइं कुलाइं भवन्ति--आढ्यानि दीप्तानि विस्तीर्णभवंति—अड्डाई 'दित्ताइं विपुल-भवन-शयनासन-यान-वाहनानि विच्छिण्णविउल-भवण-सयणासण- बहधन-बहुजातरूप-रजतानि आयोगजाण-वाहणाई बहुधण-बहुजायरूव- प्रयोग-संप्रयुक्तानि विच्छद्दित-प्रचुररययाइं आओग-पओग-संपउत्ताई- भक्तपानानि बहुदासी-दास-गो-महिषविच्छड्डियं-पउर-भत्तपाणाई बहु- गवेलक-प्रभूतानि बहुजनस्य अपरिदासी-दास-गो-महिस-गवेलय- भूतानि, तथाप्रकारेषु कुलेषु पुंस्त्वेन प्पभूयाई बहुजणस्स अपरिभूताई, प्रत्यायाति । तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाति। से णं तत्थ पुमे भवति सुरूवे सुवण्णे स तत्र पुमान् भवति सुरूपः सुवर्णः सुगंधे सुरसे सुफासे इ8 कते 'पिए सुगन्धः सुरसः सुस्पर्शः इष्टः कान्तः प्रियः मणुणे मणामे अहीणस्सरे मनोज्ञः मनआपः अहीनस्वरः अदीनस्वरः 'अदीणस्सरे इट्ठस्सरे कंतस्सरे इष्टस्वरः कान्तस्वरः प्रियस्वरः मनोज्ञपियस्सरे मणुण्णस्सरे मणामस्सरे स्वरः मनआपस्वरः आदेयवचनः आदेज्जवयणे पच्चायाते। प्रत्याजातः । जाविय से तत्थ बाहिरब्भंतरिया यापि च तस्य तत्र बाह्याभ्यन्तरिका परिसा भवति, सावि यणंआढाति परिषद् भवति, सापि च आद्रियते परिजाणाति महरिहेणं आसणेणं परिजानाति महार्हेन आसनेन उवणिमंतेति, भासंपि य से भास- उपनिमन्त्रयते, भाषामपि तस्य स भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा माणस्य यावत चत्वारः पञ्च जनाः अणुत्ता चेव अब्भुटुंति बहुं अनुक्ताश्चैव अभ्युत्तिष्ठन्ति—बहु आर्यअज्जउत्ते! भासउ-भासउ। पुत्र ! भाषतां-भाषताम् ।
वहां वह सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध, सुरस और सुस्पर्श वाला होता है। वह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मन के लिए गम्य होता है। वह अहीन स्वर, अदीन स्वर, इष्ट स्वर, कांत स्वर, प्रिय स्वर, मनोज्ञ स्वर, रुचिकर स्वर और आदेय वचन वाला होता है। वहां उसके बाह्य और आभ्यन्तर दो परिषदें होती हैं। दोनों परिषदों के सदस्य उसका आदर करते हैं, उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं और उसे महान व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमत्रित करते हैं । जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है तब चार-पांच मनुष्य बिना कहे ही खड़े होते हैं और कहते हैं-'आर्यपुत्र ! और अधिक बोलो, और अधिक बोलो।'
संवर-असंवर-पदं
संवर-असंवर-पदम् ११. अट्टविहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा- अष्टविधः संवरः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-
सोइंदियसंवरे, 'चक्खिदियसंवरे, श्रोनेन्द्रियसंवरः, चक्षुरिन्द्रियसंवरः, घाणिदियसंवरे, जिभिदियसंवरे, घ्राणेन्द्रियसंवरः, जिह्वन्द्रियसंवरः, फार्सािदयसंवरे, मणसंवरे, स्पर्शेन्द्रियसंवरः, मनःसंवरः, वइसंवरे, कायसंवरे । वाक्संवरः, कायसंवरः।
संवर-असंवर-पद ११. संवर आठ प्रकार का होता है
१. श्रोत्रेन्द्रिय संवर, २. चक्षुइन्द्रिय संवर, ३. घ्राणइन्द्रिय संवर, ४. जिह्वाइन्द्रिय संवर, ५. स्पर्शइन्द्रिय संवर, ६. मन संवर, ७. वचन संवर, ८. काय संवर।
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