SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 635
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ५६४ स्थान ५: सूत्र १६६-१७१ तइओ उद्देसो अत्थिकाय-पदं अस्तिकाय-पदम् अस्तिकाय-पद १६६. पंच अथिकाया पण्णत्ता, तं जहा.- पञ्चास्तिकायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- १६६. अस्तिकाय पांच हैं -- धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, आकाशास्तिकायः, जीवास्तिकायः, ३. आकाशास्तिकाय, ४. जीवास्तिकाय पोग्लत्थिकाए। पुद्गलास्तिकायः। ५. पुद्गलास्तिकाय। १७०. धम्मत्थिकाए अवण्णे अगंधे अरसे धर्मास्तिकायः अवर्णः अगन्धः अरसः १७०. धर्मास्तिकाय अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श, अफासे अरूवी अजीवे सासए अस्पर्श: अरूपी अजीवः शाश्वतः अरूप, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा अवदिए लोगदव्वे। अवस्थितः लोकद्रव्यम् । लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, संक्षेप में वह पांच प्रकार का हैजहातद्यथा १. द्रव्य की अपेक्षा, २. क्षेत्र की अपेक्षा, दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, ३. काल की अपेक्षा, ४. भाव की अपेक्षा, गुणओ। गुणतः। ५. गुण की अपेक्षा। दव्वओ णं धम्म त्थिकाए एगं द्रव्यतः धर्मास्तिकायः एक द्रव्यम् । द्रव्य की अपेक्षा-एक द्रव्य है। दव्वं । खेत्तओ लोगपमाणमेत्ते। क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः । क्षेत्र की अपेक्षा--लोकप्रमाण है। कालओ ण कयाइ गासी, ण कयाइ कालतः न कदापि न आसीत, न कदापि काल की अपेक्षा-कभी नहीं था ऐसा नहीं है, कभी नहीं है ऐसा नहीं है, कभी ण भवति, ण कयाइ ण भविस्स- न भवति, न कदापि न भविष्यति नहीं होगा ऐसा नहीं है। वह अतीत में इति--भुवि च भवति य भविस्सति इति—अभूच्च भवति च भविष्यति च, था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। य, धुवे णिइए सासते अक्खए ध्रुवः निचितः शाश्वत: अक्षयः अव्ययः अत: वह ध्रुव, निचित, शाश्वत, अक्षय, अव्वए अवद्विते णिच्चे। अवस्थित: नित्यः । अव्यय, अवस्थित और नित्य है। भावप्रो अवणे अगंधे अरसे भावतः अवर्णः अगन्धः अरसः अस्पर्शः। भाव की अपेक्षा–अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श है। अफासे। गुण की अपेक्षा—गमन-गुण है-गति में गुणओ गमणगुणे। गुणतः गमनगुणः । उदासीन सहायक है। १७१. अधम्मत्थिकाए अवण्णे 'अगंधे अधर्मास्तिकायः अवर्णः अगन्धः अरस: १७१. अधर्मास्तिकाय अवर्ण, अगंध, अरस, अरसे अफासे अरूवी अजीवे अस्पर्शः अरूपी अजीवः शाश्वतः अस्पर्श, अरूप, अजीव, शाश्वत, अवस्थित सासए अवढ़िए लोगदव्वे । अवस्थितः लोकद्रव्यम् । तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है । से समासओ पंचविधे पण्णत्ते, तं स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, संक्षेप में वह पाच प्रकार का है तद्यथादव्वओ, खेत्तओ, कालओ, द्रव्यत:, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, १. द्रव्य की अपेक्षा, २. क्षेत्र की अपेक्षा, ३. काल की अपेक्षा, ४. भाव की अपेक्षा, भावओ, गुणओ। गुणतः। ५. गुण की अपेक्षा। जहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy