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ठाणं (स्थान)
६६६
स्थान ६ : टि० २३
यन्त्र सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष
अवग्रह
ईहा
अवाय
धारणा
१. क्षिप्र-अक्षिप्र २. बहु---अबहु ३. बहुविध ...अबहुविध ४. ध्रुव-अध्रुव ५. अनिधित—निश्रित ६. असंदिग्ध–संदिग्ध
१. क्षिप्र—अक्षित २. बहु—अबहु ३. बहुविध-अबहुविध ४. ध्रुव-अध्रुव ५. अनिश्रित—निथित ६. असंदिग्ध-संदिग्ध
१. क्षिप्र--अक्षिप्र २. बहु-अबहु ३. बहुविध-अबहुविध ४. ध्रुव-अध्रुव ५. अनिधित-निश्रित ६. असंदिग्ध-संदिग्ध
१. बहु-अबहु २. बहुविध-अबहुविध ३. पुराण—अपुराण ४. दुर्द्धर—अदुर्द्धर ५. अनिश्रित—निश्रित ६. असंदिग्ध--संदिग्ध
पाव
१. क्षिप्र-शीघ्रता से जानना। २. बहु-अनेक पदार्थों को एक-एक कर जानना।
व्यवहारभाष्य के अनुसार इसका अर्थ है---पांच, छह अथवा सात सौ ग्रन्थों (श्लोकों) को एक बार में ही ग्रहण कर लेना।
३. बहुविध-अनेक पदार्थों को अनेक पर्यायों को जानना।
व्यवहारभाष्य के अनुसार इसका अर्थ है—अनेक प्रकार से अवग्रहण करना। जैसे--स्वयं कुछ लिख रहा है; साथसाथ दूसरे द्वारा कथित वचनों का अवधारण भी कर रहा है तथा वस्तुओं को गिन रहा है और साथ-साथ प्रवचन भी कर रहा है। ये सभी प्रवृत्तियां एक साथ चल रही हैं।
इसका दूसरा अर्थ है-अनेक लोगों द्वारा उच्चारित तथा अनेक वाद्यों द्वारा दादित अनेक प्रकार के शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप से ग्रहण करना।
वर्तमान में सप्तसंधान नामक अवधान किया जाता है। उसमें अवधानकार के समक्ष तीन व्यक्ति तथा दो व्यक्ति दोनों पावों में और दो व्यक्ति पीछे खड़े होते हैं। सामने वाले तीन व्यक्ति भिन्न-भिन्न चीजें दिखाते हैं; एक पार्श्व वाला एक शब्द बोलता है, दूसरे पार्श्व वाला तीन अंकों की एक संख्या कहता है; पीछे खड़े दो व्यक्ति अवधानकार के दोनों हाथों में दो वस्तुओं का स्पर्श करवाते हैं। ये सातों क्रियाएं एक साथ होती हैं।
४. ध्रुव-सार्वदिक एकरूप जानना ! ५. अनिश्रित-बिना किसी हेतु की सहायता लिए जानना।
व्यवहारभाष्य में इसका अर्थ है-जो न पुस्तकों में लिखा गया है और जो न कहा गया है, उसका अवग्रहण करना।
६. असंदिग्ध-निश्चित रूप से जानना।
१. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २७८ :
"बहुग पुण पंच व छस्सत्त गंथसया।। २.३. वही, भाष्यगाथा २७६ :
बहुहाणेगपयारं जह लिहति व धारए गणेइ वि या।
अक्खाणगं कहेइ सहसमूहं व गविहं । ४. वही, भाष्यगाथा २८० :
"" अणिस्सियं जन्न पोत्थए लिहिया।
अणभासियं च.........
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