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________________ ठाणं (स्थना) ६६७ स्थान ६ : टि० २४-२६ २४, २५. (सू० ६५, ६६) विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ २५१-२८५। २६. (सू०६८) प्राचीन मान्यता के अनुसार ये छह शूद्र कहलाते हैं'-- १. अल्प, २. अधम, ३. वैश्या, ४. क्रूरप्राणी, ५. मधुमक्खी , ६. नटी। वृत्तिकार ने प्रस्तुत सूत्र में क्षुद्र का अर्थ अधम किया है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा तेजस्कायिक और वायुकायिक प्राणियों को अधम मानने के दो हेतु हैं.... १. इनमें देवताओं का उत्पन्न न होना। २. दूसरे भव में सिद्ध न हो पाना। सम्मच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों को अधम मानने के दो हेतु हैं-- १. इनमें देवताओं का उत्पन्न न होना। २. अमनस्क होने के कारण पूर्ण विवेक का न होना।' वाचनान्तर के अनुसार क्षुद्र प्राणी निम्न छह प्रकार के होते हैं१. सिंह, २. व्याघ्र, ३. भेडिया, ४. चीता, ५. रीछ, ६. जरख । २७. (सू० ६६) विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ २६६-२६६ । २८-२९. (सू० ७०-७१) नरक पृथिवियां सात हैं। उनमें क्रमशः १३, ११, ६, ७, ५, ३ और एक प्रस्तट हैं। इस प्रकार कुल ४६ प्रस्तट हैं । इन नरक पृथिवियों में क्रमश: इतने ही सीमन्तक आदि गोल नरकेन्द्रक हैं। सीमन्तक के चारों दिशाओं में ४६ नरकावली और विदिशाओं में ४८ नरकावली हैं। सारे प्रस्तट ४६ हैं। प्रत्येक प्रस्तट की दिशा और विदिशा-उभयतः एक-एक नरक की हानि करने से सातवीं पृथ्वी में चारों दिशाओं में केवल एक-एक नरक और विदिशा में कुछ भी शेष नहीं रहता। सीमन्तक की पूर्व दिशा में सीमन्तकप्रभ, उत्तर में सीमन्तक मध्यम, पश्चिम में सीमन्तकावर्त्त और दक्षिण में सीमन्तकावशिष्ट नरक है। सीमन्तक की अपेक्षा से चारों दिशाओं में तृतीय आदि नरक और प्रत्येक आवलिका में विलय आदि नरक होते हैं। इस सूत्र में वर्णित लोल आदि छह नरक आवलिकागत नरकों में गिने गए हैं। वृत्तिकार के कथनानुसार यह उल्लेख 'विमाननरकेन्द्र' ग्रन्थ में है। उसके अनुसार लोल और लोलुप–ये दोनों आवलिका के अन्त में हैं; उद्दग्ध, निर्दग्ध-ये दोनों १. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३४७ : अल्पमधमं पणस्त्रीं क्रूरं सरघां नटी व षट् क्षुद्वान् । २. वही, पन ३४७ : परमिह क्षुद्रा:-अधमाः । ३. वही, पन ३४७ : अधमत्वं च विकलेन्द्रियतेजोवायूनामनन्तर भवे सिद्धिगमनाभावाद् तथा एतेषु देवानुत्पत्तेषच । ४. वही, पन ३४७ : सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियातिरश्चां चाधमत्वं तेषु देवानुत्पत्तेः, तथा पञ्चेन्द्रियत्वेऽप्पमनस्कतया विवेकाभावेन निर्गुणत्वादिति। ५. वही, पन ३४७ : वाचनान्तरे तु सिंहाः व्याघ्रा वृका दीपिका ऋक्षास्तरक्षा इति क्षुद्रा उक्ताः क्रूरा इत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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