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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि० १४-१६
तत्त्वार्थराजवातिक में भी ईक्ष्वाकु जाति और भोज कुल में उत्पन्न व्यक्तियों को जाति-आर्य माना है। उन्होंने अद्धिप्राप्त आर्यों की गिनती में जाति-आर्य को माना है, किन्तु कुल-आर्य के विषय में कुछ नहीं कहा है।
१४. (सू०३७)
प्रस्तुत सूत्र में छह दिशाओं का उल्लेख है। इसमें विदिशाओं का ग्रहण नहीं किया गया है। वृत्तिकार ने इस अग्रहण के तीन संभावित कारण माने हैं -
१. विदिशाएं दिशाएं नहीं हैं। २. जीवों की गति आदि सभी प्रवृत्तियां इन छह दिशाओं में ही होती हैं। ३. यह छठा स्थान है, इसलिए छह दिशाओं का ही ग्रहण किया गया है।
१५. समुद्घात (सू० ३६)
विशेष विवरण के लिए देखें-७।१३८,८।११० ।
१६, १७. (सू० ४१, ४२)
विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ १६५, १६६ ।
१८, १६. (सू० ४५, ४६)
उत्तराध्ययन २६।२५, २६ में प्रतिलेखना की विधि और दोषों का उल्लेख है। यहाँ उनको प्रमाद प्रतिलेखना और अप्रमाद प्रतिलेखना के रूप में समझाया गया है।
विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तरज्झयणाणि, भाग १, पृष्ठ ३५३, ३५४ । उत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ १६४, १६५ ।
२०-२३. (सू० ६१-६४)
सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान के चार प्रकार हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। प्रस्तुत चार सूत्रों (६१-६४) में एक-एक के छह-छह प्रकार बतलाए हैं, किन्तु उनके प्रतिपक्षी विकल्पों का उल्लेख नहीं है। धारणा के छह प्रकारों में, 'क्षिप्र' और 'ध्रुव' के स्थान पर 'पुराण' और 'दुर्धर' का उल्लेख है।
तत्त्वार्थ सूत्र की श्वेताम्बरीय भाष्यानुसारिणी टीका में अवग्रह आदि के बारह-बारह प्रकार किए हैं। इस प्रकार उन चारों भेदों के कुल ४८ प्रकार होते हैं।
तत्त्वार्थ (दिगम्बरीय परम्परा) में 'असंदिग्ध' और 'संदिग्ध' के स्थान पर 'अनुक्त' और 'उक्त' का निर्देश है।' तत्त्वार्थ (श्वेताम्बरीय परम्परा) में असंदिग्ध और संदिग्ध ही उल्लिखित है।
१. तत्त्वार्थराजबतिक, ३।३६, वृत्ति। २. स्यानांगवृत्ति, पत्र ३४१ : विदिशो न दिशो विदिक्त्वादिति
षडेवोक्ताः, अथवा एभिरेव जीवानां वक्ष्यमाणा गतिप्रभृतयः पदार्थाः प्रायः प्रवर्त्तन्ते, षट्स्थानकानुरोधेन वा विदिशो न विवक्षिता पडेव दिश उक्ता इति ।
३. तत्त्वार्थ, १।१६, भाष्यानुसारिणी टीका, पृष्ठ ८४ । ४. वही, १।१६ : बहुबहुविधक्षिप्रानि:श्रितानुक्त ध्रुवाणां सेत
राणाम् । ५. वही, १।१६ : बहुबहुविधक्षिप्रानि:श्रितासन्दिग्ध ध्रुवाणां सेत
राणाम् ।
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