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________________ ठाणं (स्थान) ६६४ स्थान ६:टि०१३ [जिसका पितृपक्ष विशुद्ध हो] किया है । ऐतिहासिक दृष्टि से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में दो प्रकार की व्यवस्थाए रही हैं—मातृसत्ताक और पितृसत्ताक । मातृसत्ताक व्यवस्था को 'जाति' और पितृसत्ताक व्यवस्था को 'कुल' कहा गया है। नागों की संस्था मातृसत्ताक थी। वैदिक आर्यों के कुछ समूहों में मातृसत्ताक व्यवस्था विद्यमान थी। ऋग्वेद में वरुण, मित्र, सविता, पूषन आदि के लिए 'आदित्य' विशेषण मिलता था। अदिति कुछ बड़े देवों की माता थी। यह भी मातृसत्ताक व्यवस्था की सूचक है। ऋग्वेद में पितृसत्ताक व्यवस्था भी निर्मित होने लगी थी। दक्षिण के केरल आदि प्रदेशों में आज भी मातृसत्ताक व्यवस्था विद्यमान है। इतिहासकारों की मान्यता है कि देवी-पूजा मातृसत्ताक व्यवस्था की प्रतीक है। मातृपूजा की संस्था चीन से योरोप तक फैली हुई थी। ईसाई धर्म में मेरी की पूजा भी इसी की प्रतीक है। यह भी माना जाता है कि वैदिक गृहसंस्था पितृप्रधान थी और अवैदिक गृहसंस्था मातृप्रधान। प्रस्तुत सूत्रों (३४-३५) में छह मातृसत्ताक जातियों तथा छह पितृसत्ताक कुलों का उल्लेख है। प्रस्तुत सूत्र (३४) में अंब? आदि छह जातियों को इभ्य जाति माना है। जो व्यक्ति इभ---हाथी रखने में समर्थ होता है, वह इभ्य कहलाता है। जनश्रुति के अनुसार इनके पास इतना धन होता था कि उसकी राशि में सूड को ऊंची किया हुआ हाथी भी नहीं दीख पाता था। अंबष्ठ—इनका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण [२१] में भी हुआ है। एरियन [६३१५] इन्हें अम्बस्तनोई के नाम से सम्बोधित करता है। ग्रीक आधारों से पता चलता है कि चिनाब के निचले हिस्से पर ये बसे हुए थे। वृत्तिकार ने कुल-आर्यों का विवरण इस प्रकार किया है उग्र-----भगवान् ऋषभ ने आरक्षक वर्ग के रूप में जिनकी नियुक्ति की थी, वे उग्र कहलाए। उनके वंशजों को भी उग्र कहा गया है। भोज-जो गुरु स्थानीय थे वे तथा उनके वंशज। राजन्य-जो मित्र स्थानीय थे वे तथा उनके वंशज । ईक्ष्वाकु--भगवान् ऋषभ के वंशज । ज्ञात' -भगवान् महावीर के वंशज । कौरव-भगवान् शान्ति के वंशज। वृत्तिकार ने यह भी बताया है कि उग्र आदि के अर्थ लौकिक रूढि से जान लेने चाहिए। सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य में पित्रन्वय को जाति और मात्रन्वय को कुल माना है। उन्होंने जाति-आर्य में ईक्ष्वाकु, विदेह, हरि, अम्बष्ठ, ज्ञात, कुरु, बुम्वनाल [बुचनाल], उग्र, भोग [भोज] और राजन्य आदि को माना है तथा कुल-आर्य में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव के वंशजों को गिनाया है। १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४० : जात्यार्याः विशुद्धमातृका इत्यर्थः,." कुल पैतृकः पक्षः। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४० : इभमहन्तीतीभ्याः, यद् द्रव्यस्तू पान्तरित उच्छ्रितकदलिकादण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति श्रुतिः । ३. मैकक्रिडिल, पृष्ठ १५५ नो० २ । ४. देखें-दशवकालिक रा८ का टिप्पण। ५. 'नाय' का संस्कृत रूपान्तर 'ज्ञात' किया जाता है। हमारे मत में वह 'नाग' होना चाहिए । भगवान् महावीर 'नाग' वंश में उत्पन्न हुए थे। इसके पूरे विवरण के लिए देखें हमारी पुस्तक - 'अतीत का अनावरण'---पृष्ठ १३१-१४३। स्थानांगवृत्ति, पत्र ३४० : कुल पंतक: पक्षः, उग्रा आदिराजेनारक्षकत्वेन ये व्यवस्थापितास्तद्वंश्याश्च, ये तु गुरुत्वेन ते भोगास्तद्वेश्याश्च ये तु वयस्थतयाऽचरितास्ते राजन्यास्तद्वंश्याश्च इक्ष्वाकवः प्रथमप्रजापतिवंशजा: ज्ञाताः कुरवश्च महावीर. शांतिजिनपूर्वजाः: अथवैते लोकरूढितो ज्ञयाः। ७. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, ३॥१५, भाष्य तथा वृत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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