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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ :टि०१०-११
६. हुंडक—जिस शरीर रचना में कोई भी अवयव प्रमाणोपेत नहीं होता, उसे हुंडक संस्थान कहा जाता है। तत्त्वार्थवातिक में इनकी व्याख्या कुछ भिन्न प्रकार से की गई है, जैसे
१. समचतुरस्र-जिस शरीर-रचना में ऊर्ध्व, अधः और मध्यभाग सम होता है उसे समचतुरस्रसंस्थान कहा जाता है। एक कुशल शिल्पी द्वारा निर्मित चक्र की सभी रेखाएं समान होती हैं, इसी प्रकार इस संस्थान में सब भाग समान होते हैं।
२. न्यग्रोधपरिमण्डल-जिस शरीर-रचना में नाभि के ऊपर का भाग बड़ा [विस्तृत तथा नीचे का भाग छोटा होता है उसे न्यग्रोधपरिमण्डल कहा जाता है। इसका यह नाम इसीलिए दिया गया है कि इस संस्थान की तुलना न्यग्रोध (वट) वृक्ष के साथ होती है।
३. स्वाति—इसमें नाभि के ऊपर का भाग छोटा और नीचे का बड़ा होता है। इसका आकार बल्मीक की तरह होता है।
४. कुब्ज-जिस शरीर-रचना में पीठ पर पुद्गलों का अधिक संचय हो, उसे कुब्ज संस्थान कहते हैं। ५. वामन–जिसमें सभी अंग-उपांग छोटे हों, उसे वामन संस्थान रहते हैं। ६. हण्ड-जिसमें सभी अंग-उपांग हुण्ड की तरह संस्थित हों, उसे हुण्ड संस्थान कहते हैं।
इनमें समचतुरस्र और न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानों की व्याख्या भिन्न नहीं है। तीसरे संस्थान का नाम और अर्थदोनों भिन्न हैं । अन्तिम तीनों संस्थानों के अर्थ दोनों व्याख्याओं में भिन्न हैं। राजवार्तिक की व्याख्या स्वाभाविक लगती है।
१०, ११. (सू० ३२, ३३)
प्रस्तुत सूत्रों में आत्मवान् और अनात्मवान्--ये दोनों शब्द विशेष विमर्शणीय हैं। प्रत्येक प्राणी आत्मवान् होता है, किन्तु यहाँ आत्मवान् विशेष अर्थ का सूचक है। जिस व्यक्ति को आत्मा उपलब्ध हो गई है, अहं विसर्जित हो गया है, वह आत्मवान् है।
साधना के क्षेत्र में दो तत्त्व महत्त्वपूर्ण होते हैं१. अहं का विसर्जन। २. ममकार का विसर्जन ।
जिस व्यक्ति का अहं छूट जाता है, उसके लिए ज्ञान, तप, लाभ, पूजा-सत्कार आदि-आदि विकास के हेतू बनते हैं। वह आत्मवान् ब्यक्ति इन स्थितियों में सम रहता है।
अनात्मवान् व्यक्ति अहं को विसर्जित नहीं कर पाता। उसे जैसे-जैसे लाभ या पूजा-सत्कार मिलता रहता है, वैसेवैसे उसका अहं बढ़ता है और वह किसी भी स्थिति का अंकन सम्यक नहीं कर पाता। ये सभी स्थितियाँ उसके विकास में बाधक होती हैं। अपने अहं के कारण वह दूसरों को तुच्छ समझने लगता है।
१. अवस्था या दीक्षा-पर्याय के अहं से उसमें विनम्रता का अभाव हो जाता है। २. परिवार के अहं से बह दूसरों को हीन समझने लगता है। ३. श्रुत के अहं से उसमें जिज्ञासा का अभाव हो जाता है। ४. तप के अहं से उसमें क्रोध की मात्रा बढ़ती है। ५. लाभ के अहं से उसमें ममकार बढ़ता है। ६. पूजा-सत्कार के अहं से उसमें लोकैपणा बढ़ती है।
१२, १३. (सू० ३४, ३५)
वृत्तिकार ने जात्यार्य का अर्थ विशुद्धमातृक [जिसका मातृपक्ष विशुद्ध हो] और कुल-आर्य का अर्थ विशुद्ध-पितृक
१. तत्त्वार्थवात्तिक पृष्ठ ५७६, ५७७ ।
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