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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६: टि०६
१. व्योमचारण-पर्यंकासन में बैठकर अथवा कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित होकर पैरों को हिलाए-डुलाए बिना आकाश में गमन करने वाले।
२. जलचारण --जलाशय के जीवों को कष्ट पहुंचाए बिना जल पर भूमि की तरह गमन करने वाले। ३. जंघाचारण-भूमि से चार अंगुल ऊपर गमन करने वाले। ४. पुष्पचारण--पुष्प के दल का आलंबन लेकर गमन करने वाले। ५. श्रेणिचारण-----पर्वत श्रेणि के आधार पर ऊपर-नीचे गमन करने वाले। ६. अग्निशिखाचारण-अग्नि की शिखा को पकड़ कर अपने को बिना जलाए गमन करने वाले। ७. धूमचारण-तिरछी या ऊंची गतिवाले धुएं का आलंबन ले तिरछी या ऊंची गति करने वाले। ८. मर्कटतन्तुचारण-मकड़ी के जाल का सहारा ले गमन करने वाले ।
६. ज्योतिरश्मिचारण-सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि में से किसी की भी किरणों का आलंबन ले पृथ्वी की भांति अन्तरिक्ष में चलने वाले।
१०. वायुचारण--वायु के सहारे चलने वाले। ११. नीहारचारण-हिमपात का सहारा लेकर निरालम्बन गति करने वाले। १२. जलदचारण-बादलों का आलम्बन ले गति करने वाले। १३. अवश्यायचारण —ओस का आलम्बन ले गति करने वाले। १४. फलचारण-फलों का आलम्बन ले गति करने वाले।
तत्त्वार्थ राजवार्तिक में क्रिया विषयक ऋद्धि दो प्रकार की मानी है---चारणत्व और आकाशगामित्व। जल, जंया पुष्प आदि का आलम्बन लेकर गति करना चारणत्व है और आकाश में गमन करना आकाशगामित्व है।
श्वेताम्बर आचार्यों ने ये भेद नहीं दिए हैं। किन्तु चारण के भेद-प्रभेदों में ये दोनों विभाग समा जाते हैं।
६. संस्थान (सू० ३१)
इसका अर्थ है--शरीर के अवयवों की रचना, आकृति । ये छह हैं। वृत्तिकार के अनुसार इनकी व्याख्या इस प्रकार है----
१. समचतुरस्र-शरीर के सभी अवयव जहां अपने-अपने प्रमाण के अनुसार होते हैं, वह समचतुरस्र सस्थान है। अस्र का अर्थ है-कोण। जहां शरीर के चारों कोण समान हों वह समचतुरस्र है।
२. न्यग्रोधपरिमण्डल-न्यग्रोध [वट] वृक्ष की भांति परिमण्डल संस्थान को न्यग्रोधपरिमण्डल कहा जाता है। न्यग्रोध [वट] का ऊपरी भाग विस्तृत अवयवों वाला होता है, किन्तु नीचे का भाग वैसा नहीं होता। उसी प्रकार न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान वाले व्यक्ति के नाभि के ऊपर के अवयव विस्तृत अर्थात् प्रमाणोपेत और नीचे के अवयव प्रमाण से अधिक या न्यून होते हैं।
३. सादि-इसमें दो शब्द है.-स+आदि। आदि का अर्थ है-नाभि के नीचे का भाग। जिस शरीर में नाभि के नोच का भाग प्रमाणोपेत है उस संस्थान का नाम सादि संस्थान है।
४. कुब्ज-जिस शरीर रचना में पैर, हाथ, शिर और गरदन प्रमाणोपेत नहीं होते, शेष अवयव प्रमाणयुक्त होते हैं, उसे कुब्ज संस्थान कहा जाता है।
५. वामन-जिस शरीर रचना में पैर, हाथ, शिर और गरदन प्रमाणोपेत होते हैं, शेष अवयव प्रमाण युक्त नहीं होते, उसे वामन संस्थान कहा जाता है।
१. प्रवचनसारोद्धार, द्वार ६८, वृत्ति पत्र १६८, १६६ । २. तत्त्वार्थ राजवातिक, ३३६, वृत्ति पृष्ठ २०२ । ३. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३३६ ।
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