________________
ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि० ११४-११५
'शरीरं धर्म-संयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराच्छ्वते धर्मः पर्वतात् सलिलं यथा ॥"
११४, निधि (सू० १६३)
निधि का अर्थ है-विशिष्ट वस्तु रखने का भाजन । वृत्तिकार ने पांच निधियों का वर्णन इस प्रकार किया है।
१. पुत्र निधि--पुत्र को निधि इसलिए माना गया है कि वह अर्थोपार्जन कर माता-पिता का निर्वाह करता है तथा उनके आनन्द और सुख का हेतु बनता है।
'जन्मान्तरफलं पुण्यं, तपोदानसमुद्भवम् ।
सन्तति: शुद्धवंश्या हि, परत्तेह च शर्मणे ॥ २. मित्र निधि-मित्र अर्थ और काम का साधक होता है । वह आनन्द का कारण भी बनता है, अतः वह निधि है। कहा है
'कुतस्तस्यास्तु राज्यश्रीः कुतस्तस्य मृगक्षेणाः।
यस्य शूरं विनीतं च, नास्ति मित्रं विचक्षणम् ।। ३. शिल्प निधि--शिल्प का अर्थ है—चित्रकला आदि । यह विद्या का वाचक और पुरुषार्थ का साधन है
विद्यया राजपुज्यः स्याद् विद्यया कामिनीप्रियः ।
विद्या ही सर्वलोकस्य, वशीकरणकार्मणम् ।। ४. धन निधि-कोश। यह सारे जीवन का आधारभूत तत्त्व है।
५. धान्य निधि-कोष्ठागार । शरीर यापन का यह मुख्य तत्त्व है। 'अन्नं वै प्राणा:'-अन्न जीवन-निर्वाह का अनन्य साधन है।
नीतिवाक्यामृत में लिखा है-'सर्वसंग्रहेषु धान्यसंग्रहो महान्'–सभी संग्रहों में धान्य-संग्रह महत्त्वपूर्ण होता है।'
११५. शौच (सू० १९४)
शौच दो प्रकार का होता है--द्रव्यशौच और भावशौच। इस सूत्र में प्रथम चार द्रव्यशोच के साधक हैं और अन्तिम भाव शौच का साधक है । शौच का अर्थ है----शुद्धि ।
१. पृथ्वीशौच-मिट्टी से होने वाली शुद्धि । २. जलशौच-जल से धोने से होने वाली शुद्धि। ३. तेजःशौच-अग्नि या राख से होने वाली शुद्धि। ४. मंत्रशौच—मन्त्रविद्या से दोषों का अपनयन होने पर होने वाली शुद्धि । ५. ब्रह्मशौच–ब्रह्मचर्य आदि सद् अनुष्ठानों के आचरण से होने वाली शुद्धि ।
वृत्तिकार का कथन है कि ब्रह्मशौच से सत्यशौच, तपःशौच, इंद्रियनिग्रहशौच और सर्वभूतदयाशौच इन चारों को भी ग्रहण कर लेना चाहिए। लौकिक मान्यता के अनुसार शौच सात प्रकार का है---आग्नेय, वारुण, ब्राम्य, वायव्य, दिव्य, पार्थिव और मानस।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३२२, ३२३ । २. स्थानांगवृत्ति, पन ३२३ । ३. नीतिवाक्यामृत १८१६५ ॥ ४. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३२३ : अनेन च सत्यादिशोचं चतुर्विधमपि संगृहीतं, तच्चेदम् -
"सत्यं शौच तपः शोचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदयाशीच जलशौचञ्च पञ्चमम् ॥"
५. वही, पन्न ३२३, ३२४ लौकिकः पुनरिदं सप्तधोक्तम्-यदाह
सप्त स्नानानि प्रोक्तानि, स्वयमेव स्वयंभुवा। द्रव्यभावविशुद्धयर्थमृषीणां ब्रह्मचारिणाम् ।। आग्नेयं वारुणं ब्राह म्य, वायव्यं दिव्यमेव च : पार्थिवं मानसं चैव स्नानं सप्तविधं स्मृतम् ॥ आग्नेयं भस्मना स्नानमवगाह्य तु वारुणं । आपोहिष्ठामयं ब्राह म्यं, वायव्यं तु गवा रजः ।। सूर्यदृष्टं तु यदृष्टं, तद्दिव्यमृषयो विदुः । पार्थिवं तु मृदा स्नानं, मनःशुद्धिस्तु मानसम् ।।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org