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________________ ठाणं (स्थान) ६४७ स्थान ५ : टि० ११६-१२१ पातंजलयोगप्रदीप में शौच के दो प्रकार माने हैं-बाह्य और आभ्य तर। बाह्यशौच —मृत्तिका, जल आदि से पात्र, वस्त्र, स्थान, शरीर के अंगों को शुद्ध रखना, शुद्ध, सात्त्विक और नियमित आहार से शरीर को सात्त्विक, नीरोग और स्वस्थ रखना तथा वस्ती, धोती, नेती आदि से तथा औषधि से शरीरशोधन करना-ये बाह्यशौच हैं। आभ्यन्तरशौच--ईर्ष्या, अभिमान, घृणा, असूया आदि मलों को मैत्री आदि से दूर करना, बुरे विचारों को शुद्ध विचारों से हटाना, दुर्व्यवहार को शुद्ध व्यवहार से हटाना मानसिक शौच है।' अविद्या आदि क्लेशों के मलों को विवेक-ज्ञान द्वारा दूर करना चित्त का शौच है। ११६. अधोलोक (सू० १९६) इस सूत्र में अधोलोक से सातवां नरक अभिप्रेत है। उसमें ये पांच नरकावास हैं। इन पांचों को अनुत्तर मानने के दो कारण हैं १. इनमें वेदना सर्वोत्कृष्ट होती है। २. इनसे आगे कोई नरकवास नहीं है। वृत्तिकार का यह भी अभिमत हैं कि प्रथम चार नरकावासों को अनुत्तर मानने का कारण उनका क्षेत्र-विस्तार भी है। ये चारों असंख्य योजन के अप्रतिष्ठान नरकावास इसलिए अनुत्तर है कि वहां के नैरयिकों का आयुष्य-मान उत्कृष्ट होता है, तेतीस सागर का होता है। ११७. ऊर्ध्वलोक (सू० १६७) इस सूत्र में 'ऊवलोक' से अनुत्तर विमान अभिप्रेत है। उसमें पांच विमान हैं। वे पांचों अनुत्तर इसलिए हैं कि उनमें देवों की संपदा और आयुष्य सबसे उत्कृष्ट होता है तथा क्षेत्रमान भी बड़ा होता है। ११८. (सू० १९८) देखें-४१४८६ का टिप्पण। ११६. (सू० २००) देखें-दसवेआलियं ५।११५१ का टिप्पण। १२०. (सू ० २०१) देखें-उत्तरज्झयणाणि २।१३ तथा २६ । सूत्र ४२ के टिप्पण । १२१. उत्कल (सू० २०२) वृत्तिकार ने 'उक्कल' के संस्कृत रूप 'उत्कट' और 'उत्कल' दोनों किए हैं। इसिभासिय के विवरण में उत्कट ही मिलता है। उत्कट के 'ट' को 'ड' और 'ड' को 'ल' करने पर 'उक्कल' रूप निर्मित होता है। इसका सहज संस्कृत रूप उत्कल है। इसिभासिय में प्रतिपादित सिद्धान्त से उत्कल का अर्थ उच्छेदवादी फलित होता है। इसिभासिय के एक अर्हत् ने पाँच १. पातंजलयोगप्रदीप, पृष्ठ ३५८, ३५६ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३२४ : 'अहोलोए' त्ति सप्तमपथिव्यां अनुत्तरा:-सर्वोत्कृष्टा उत्कृष्टवेदनादित्वात्ततः परं नरकाभावाद् वा, महत्त्वं च चतुणां क्षेत्रोऽप्यसंख्यातयोजनत्वादप्रतिष्ठानस्य तु योजनलक्षप्रमाणत्वेऽप्यायुषोऽतिमहत्त्वान्महत्त्वमिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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