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________________ ठाणं (स्थान) ६४८ स्थान ५ : टि० १२२-१२५ उत्कलों की जो व्याख्या की है वह स्थानांग की व्याख्या से सर्वथा भिन्न है। स्थानांग के मूलपाठ में उत्कलों के नाम मात्र उल्लिखित हैं। अभयदेवसूरि ने उनकी व्याख्या किस आधार पर की, यह नहीं बताया जा सकता। संभवतः उनकी व्याख्या का आधार शाब्दिक अर्थ रहा है, किन्तु प्राचीन परम्परा उन्हें भी प्राप्त नहीं हुई। इसिभासिय में प्राप्त उत्कल की व्याख्या पढ़ने पर सहज ही ऐसी प्रतीति होती है। १. दंडोत्कल-दंड के दृष्टान्त द्वारा देहात्मैक्य की स्थापना कर पुनर्जन्म का उच्छेद मानने वाला। २. रज्जूत्कल---रज्जु के दृष्टान्त द्वारा देहात्मैक्य की स्थापना कर पुनर्जन्म का उच्छेद मानने वाला। ३. स्तन्योत्कल-दूसरों के शास्त्रों के दृष्टान्तों को अपना बतलाकर पर-कर्तृत्व का उच्छेद करने वाला। ४. देशोत्कल-जीव के अस्तित्व को स्वीकार कर उसके कर्तृत्व आदि धर्मों का उच्छेद मानने वाला। ५. सर्वोत्कल-समस्त पदार्थों का उच्छेद मानने वाला। प्रथम दो उत्कलों में दंड (डंडे) और रज्जु के दृष्टान्त के द्वारा 'समुदयमात्रमिदं कलेवर' इस चार्वाकीय दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया है--जिस प्रकार दंड का आदि भाग दंड नहीं है, मध्य भाग दंड नहीं है और अंत भाग दंड नहीं है, उसका समुदाय मात्र दंड है, वैसे ही पंचभूतात्मक शरीर का समुदाय ही आत्मा है, उससे भिन्न कोई आत्मा नहीं है।' रज्जु धागों का समूह मात्र है। धागों से भिन्न उसका अस्तित्व नहीं है। इसी प्रकार आत्मा भी पंच महाभूतों का समुदाय मात्र है। उससे भिन्न कोई आत्मा नहीं है। तीसरे उत्कल के द्वारा विचार के अपहरण की प्रवृत्ति बतलाई गई है। चौथे उत्कल के द्वारा आत्मवादियों के एकाङ्गी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया है। पांचवें उत्कल के द्वारा सर्वोच्छेदवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया है। अभयदेवसूरि ने दण्डोत्कट या दण्डोत्कल का अर्थ दण्ड-शक्ति के आधार पर किया है - १. जिसकी आज्ञा प्रबल हो। २. जिसका अपराध के लिए दण्ड प्रबल हो। ३. जिसका सेना-बल प्रबल हो। ४. दण्ड के द्वारा जो बढ़ता हो। अन्य उत्कटों की व्याख्या इस प्रकार हैरज्जुक्कल-राज्य का प्रभुता से उत्कट । तेणुक्कल-उत्कट चौर। देसुक्कल–देश (मंडल) से उत्कट। सव्वुक्कल-देश-समुदाय से उत्कट । १२२-१२५. (सू० २१०-२१३) इन चार सूत्रों में विभिन्न प्रकार के संवत्सरों तथा उनके भेद-प्रभेदों का उल्लेख है। अंतिम सूत्र (२१३) में नक्षत्र आदि पाँच संवत्सरों के लक्षणों का निरूपण है। १. इसिभासिय, अध्ययन २० । से कि तं दंडुक्कले ? दंडुक्कले नाम जेण दंडदिद्रुतेणं आदिल्लमजझवसाणाणं पण्णवणाए समुदयमेत्ताभिधाणाई गत्थि सरीरातो परं जीवोत्ति भवगतिवोछेयं वदति, से तं दंडक्कले। से किं तं रज्जुक्कले ? रज्जुकले णामं जेणं रज्जुदिद्रुतेणं समुदयमेत्तपण्णवणा। पंचमहब्भूत-खंडमेत्तभिधाणाई; संसारसंसतीवोच्छे वदति, से तं रज्जुक्कले। से कि तं तेणुक्कले ? तेणुक्कले गाम जे णं अण्णसत्यदिठंतगाहेहि सपक्खुम्भावणाणिरए "मम ते एत" मिति परकरूणच्छेदं वदति, से तं तेणुक्कले। से किं तं देसुक्कले ? देसुक्कले णाम जेणं अत्थिन्न एस इति सिद्धे जीवस्स अकत्तादिएहि गाहेहि देसुच्छेय वदति, से तं देसुक्कले। से किं तं सब्बुक्कले? । सबुक्कले णामं जेणं सध्वत सव्वसंभवाभावा णो तच्च सव्वतो सव्वहा सव्वकालं च णास्थित्ति सव्वच्छेदं वदति, से तं सबुक्कले। २. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३२६ : उक्कल त्ति उत्कटा उत्कला वा, तत्र दण्ड :-आज्ञा अपराधे दण्डनं वा सैन्यं वा उत्कट :प्रकृष्टो यस्य तेन वोत्कटो यः स दण्डोत्कटः, दण्डेन बोकलतिवृद्धि याति यः स दण्डोत्कलः, इत्येवं सर्वन, नवरं राज्यप्रभुता स्तेना :-चौरा: देशो-माण्डलं सर्व-एतत्समुदय इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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