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________________ ठाणं (स्थान) ६४५ स्थान ५ : टि० ११३ धर्मचक्रभूमि देश में यह प्रथा थी कि लोग इस घास को कूट कर उसका क्षोद बना लेते थे । फिर उसके टुकड़ेटुकड़े कर उसके 'बोरे' बनाते थे । कहीं-कहीं प्रावरण और बिछौने भी बनाये जाते थे । इनसे सूत निकाल कर रजोहरण गूंथे जाते थे। २. मूंज को कूटकर - मूंज को भी इसी प्रकार कूट कर उनसे बने बोरों से तंतु निकाल कर रजोहरण बनाये जाते थे । ये दोनों प्रकार के रजोहरण प्रकृति से कठोर होते थे । विशेष विवरण के लिए देखें---- १. वृहत्कल्पभाष्य गाथा ३६७३-३६७९ । २. निशीथभाष्य गाथा ८१६ आदि-आदि । बृहत्कल्प में 'पिच्चिए' के साथ में 'चिप्पिए' पाठ मिलता है।' इन दोनों में अर्थ भेद नहीं है । निशीथचूर्ण में 'पिच्चि,' 'चिप्पिय' और 'कुट्टिअ' को एकार्थक बतलाया गया। ११३. ( सू० १६२ ) निवास्थान का अर्थ है-आलम्बनस्थान, उपाकारक स्थान । कुछेक संकेत वृत्तिकार ने दिए हैं, वे इस प्रकार है १. षट्काय • पृथ्वी की निश्रा - ठहरना, बैठना, सोना, मल-मूत्र का विसर्जन आदि-आदि । • पानी की निश्रा परिषेक, पान, प्रक्षालन, आचमन आदि आदि । अग्नि की निश्रा - ओदन, व्यंजन, पानक, आचाम आदि-आदि । • वायु की निश्रा - अचित्त वायु का ग्रहण, दृति, भस्त्रिका आदि का उपयोग | • वनस्पति की निश्रा - संस्तारक, पाट, फलक, औषध आदि-आदि । • के लिए पांच निश्रास्थान हैं। उनकी उपयोगिता • त्रस की निश्रा - चर्म, अस्थि, शृंग तथा गोबर, गोमूत्र, दूध आदि-आदि । २. गण – गुरु के परिवार को गण कहा जाता है। गण में रहने वाले के विपुल निर्जरा होती है, विनय की प्राप्ति होती है तथा निरंतर होने वाली सारणा वारणा से दोष प्राप्त नहीं होते । ३. राजा-राजा निश्रास्थान इसलिए है कि वह दुष्टों को निग्रह कर साधुओं को धर्म-पालन में आलंबन देता है । अराजक दशा में धर्म का पालन दुर्लभ हो जाता है । ४. गृहपति - वसति या उपाश्रय देनेवाला । स्थानदान संयम साधना का महान् उपकारी तत्त्व है प्राचीन श्लोक है— 'धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता, गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम् । गुणश्रीस मालिंगतेभ्यो वरेभ्यो, मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः ।' जो मुनिको उपाश्रय देता है, उसने उनको उपाश्रय देकर वस्त्र, अन्न, पान, शयन, आसन आदि सभी कुछ दे Jain Education International दिए । ५. शरीर -- कालीदास ने कहा है – शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम् ।' शरीर से धर्म का स्राव होता है, जैसे पर्वत से पानी का १२. बृहत्कल्पभाष्य गाथा ३६७५, वृत्ति-धर्मचक्र भूमिकादी देशे 'वच्चक' दर्भाकारं तृणविशेषं 'मुजं च' शरस्तम्बं प्रथमं 'चिपित्वा' कुट्टयित्वा तदीयो यः क्षोदस्तं कर्तयन्ति । ततः 'ते' वच्चकसू सूत्रेश्च 'गोणी' बोरको व्यूयते, प्रावरणाSsस्तरणानि च 'देशी' देशविशेषं समासाह कुर्वन्ति । अतस्तनिष्पन्नं रजोहरणं वच्चकचिप्पकं मुञ्ज चिप्पकं वा भण्यते । ३. बृहत्कल्प, उद्देशक २, चतुर्थ विभाग, पृष्ठ १०२२ । ४. निशीथभाष्य गाथा ८२०, चूर्णि -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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