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________________ ठाणं (स्थान) ६५४ स्थान ६ : आमुख फंस जाता है। आत्मवान् ज्ञान के आलोक में अपने जीवन-पथ को प्रशस्त करता है। विनीत और अनाग्रही बनकर जीवन को सरल बनाता है। अनात्मवान् ज्ञान से अपने को भारी बनाता है। तर्क, विवाद और आग्रह का आश्रय लेकर वह अपने अहं को और अधिक बढ़ाता है । आत्मवान् तप की साधना से आत्मा को उज्ज्वल करने का प्रयत्न करता है। अनात्मवान् उसी तप से लब्धि (योगज शक्ति) प्राप्तकर उसका दुरुपयोग करता है। आत्मवान् लाभ होने पर प्रसन्न नहीं होता और अनात्मवान् लाभ होने पर अपनी सफलता का बखान करता है। आत्मवान् पूजा और सत्कार पाकर उससे प्रेरणा लेता है और उसके योग्य अपने को करने के लिए प्रयत्न करता है। अनात्मवान् पूजा और सत्कार से अपने अहं को पोषण देता है। प्रस्तुत स्थान ६ की संख्या से सम्बन्धित है। इसमें भूगोल, इतिहास, ज्योतिष लोक-स्थिति, कालचक्र, तत्त्व, शरीर रचना, दुर्लभता और पुरुषार्थ को चुनौती देने वाले असंभव कार्य आदि अनेक विषय संकलित हैं। १.४।३२,३३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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