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ठाणं (स्थान)
५३. लिंगाजीव ( सू० ७१ )
वृत्तिकार ने एक प्राचीन गाथा का उल्लेख करते हुए लिंगाजीव के स्थान पर गणाजीव की सूचना दी है। गणाजीव का अर्थ है- अपने गण ( मल्ल आदि) की किसी मिष से या साक्षात् सूचना देकर आजीविका करने वाला ।'
५४. प्रमार (सू०७३ )
५५. आच्छेदन (सू०७३ )
इसका अर्थ है मूर्छा । वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं
१. मूर्च्छा विशेष । २. मारणस्थान । ३. मृत्यु ।
इसका अर्थ है- बलात् लेना, थोड़ा लेना । *
५६. विच्छेदन (सू०७३ )
५७ (सू० ७५-८२)
इसका अर्थ है दूर ले जाकर रख देना; बहुत लेना । *
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१. स्थानांगवृत्ति पत्र २८९ लिङ्गस्थानेऽन्यत्र गणोऽधीयते यत उक्तम्-
इन सूत्रों (७५-८२) में चार हेतु विषयक और चार अहेतु विषयक हैं।
पदार्थ दो प्रकार के होते हैं - हेतुगम्य और अहेतुगम्य ।
परोक्ष होने के कारण जो पदार्थ हेतु के द्वारा जाना जाता है, वह हेतुगम्य होता है, जैसे—- दूर प्रदेश में स्थित अग्नि धूम के द्वारा जानी जाती है ।
जो पदार्थ निकटवर्ती या स्पष्ट होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से अथवा किसी आप्त पुरुष के निर्देशानुसार जाता जाता है, वह अगम्य होता है ।
हेतु का अर्थ - कारण अथवा साध्य का निश्चितगमक कारण होता है। यहां हेतु और हेतुवादी – दोनों हेतु शब्द द्वारा विवक्षित हैं। जो हेतुवादी असम्यग्दर्शी होता है वह कार्य को जानता देखता है, पर उसके हेतु को नहीं जानता देखता । वह हेतुगम्य पदार्थ को हेतु के द्वारा नहीं जानता देखता ।
जो हेतुवादी सम्यदर्शी होता है वह कार्य के साथ-साथ उसके हेतु को भी जानता देखता है। वह हेतुगम्य पदार्थ को हेतु के द्वारा जानता देखता है।
जो आंशिकरूपेण प्रत्यक्षज्ञानी होता है वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि अहेतुगम्य पदार्थों या पदार्थ की अहेतुक ( स्वाभाविक ) परिणतियों को सर्वभावेन नहीं जानता- देखता । वह अहेतु ( प्रत्यक्षज्ञान) के द्वारा अहेतुगम्य पदार्थों को सर्वभावेन नहीं जानता-देखता ।
जो पूर्ण प्रत्यक्षज्ञानी ( केवली ) होता है वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि अहेतुगम्य पदार्थों या पदार्थ की अहेतुक (स्वाभाविक ) परिणतियों को सर्वभावेन जानता देखता है। वह प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा अहेतुगम्य पदार्थों को सर्वभावेन जानता देखता है।
"जाईकुलगणकम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा सूयाए असूयाए अप्पाण कहेइ एक्केक्के ॥"
२. स्थानांगवृत्ति पत्र २९० प्रमारो - मूर्च्छाविशेषो मारणस्थानं वाप्रमारं मरणमेव ।
स्थान ५ : टि० ५३-५७
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६० : आच्छिनत्ति बलादुद्दालयति..... अथवा ईच्छिनत्ति |
४. स्थानांगवृत्ति पत्र २९० विच्छिनत्तिविच्छिन्नं करोति, दूरे व्यवस्थापयतीत्यर्थः अथवा विशेषेण छिनत्ति विच्छिनत्ति ।
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