________________
ठाणं (स्थान)
४७. (सू०५१ )
दसवें स्थान (सूत्र १६) में दस प्रकार का श्रमण-धर्म निर्दिष्ट है। पांचवें स्थान ( सूत्र ३४-३५ ) में दस धर्म श्रमण के लिए प्रशस्त बतलाए गए हैं। प्रस्तुत सूत्र में श्रमण-धर्म के अंगभूत पाँच धर्मो को आर्जव स्थान कहा है। आर्जव का अर्थ है - ऋजुता, मोक्ष । प्रस्तुत प्रसंग में उसका अर्थ संवर किया है। ये आर्जवस्थान सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होते हैं, अत: इन सब के पूर्व साधु शब्द का प्रयोग किया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र ६।६ में दसविध धर्म के पूर्व 'उत्तम' शब्द का प्रयोग मिलता है विशेष विवरण के लिए देखें १०।१६ का टिप्पण ।
I
४८. परिचारणा (सू० ५४ )
६२२
इसका अर्थ है —— मैथुन का आसेवन। इसके पांच प्रकार हैं१. कायपरिचारणा स्त्री और पुरुष के काय से होने वाला मैथुन का आसेवन । २. स्पर्शपरिचारणा- स्त्री के स्पर्श से होने वाला मैथुन का सेवन । ३. रूपपरिचारणा -- स्त्री के रूप को देखकर होने वाला मैथुन का आसेवन ।
४. शब्दपरिचारणा- स्त्री के शब्द सुनकर होने वाला मैथुन का आसेवन ।
५. मनः परिचारणा- स्त्री के प्रति मानसिक संकल्प से होने वाला मैथुन का आसेवन ।
इसका तात्पर्य है कि कायपरिचारणा की भांति स्त्री को स्पर्श करने, रूप देखने, शब्द सुनने और मानसिक संकल्प देवों को मैथुन प्रवृत्ति के आसेवन से तृप्ति हो जाती है ।
वृत्तिकार ने इन सबको देवताओं से संबंधित माना है । तत्त्वार्थ सूत्र में भी यही प्रतिपादित है ।' बारहवें देवलोक तक के देवों में मैथुनेच्छा होती है। उसके ऊपर के देवों में वह नहीं होती । देवियों का अस्तित्व केवल दूसरे देवलोक तक
है।
४६-५२. (सू०७०)
सौधर्म और ईशान देवलोक में कायपरिचारणा ।
सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक में स्पर्शपरिचारणा ।
ब्रह्म और लान्तक में रूपपरिचारणा ।
शुक्र और सहस्रार में - शब्दपरिचारणा ।
शेष चार में मनः परिचारणा ।
इसके ऊपर के देवलोकों में किसी भी प्रकार की परिचारणा नहीं होती। मनुष्यों और तिर्यञ्यों में केवल कायपरिचारणा ही होती है ।
देखें --- ३१६ का टिप्पण ।
Jain Education International
बल- शारीरिक शक्ति ।
वीर्य आत्मशक्ति |
स्थान ५: टि०४७-५२
१. तत्त्वार्थ ४।७-६
२. स्थानांगवृत्ति, पन २८९: बलं शारीरं वीयं- जीवप्रभवं पुरुषकार :- अभिमानविशेष:, पराक्रमः स एव निष्पादितस्वविषयोऽथवा पुरुषकारः - पुरुषकर्तव्यं, पराक्रमो - बलवीर्ययोर्व्यापारणमिति ।
पुरुषकार - अभिमान विशेष; पुरुष का कर्त्तव्य ।
पराक्रम-अपने विषय की सिद्धि में निष्पन्न पुरुषकार; बल और वीर्य का व्यापार' ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org