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________________ ठाणं (स्थान) ६२१ २. पापकारी अनुष्ठानों के विषय में प्रश्न करना। इनमें पहला अर्थ ही प्रासंगिक लगता है । ४२. आज्ञा व धारणा (सू० ४८) वृत्ति में आज्ञा और धारणा के दो-दो अर्थ किए गए हैं— १. आज्ञा - ( १ ) विध्यात्मक आदेश ।' (२) कोई गीतार्थ देशान्तर गया हुआ है। दूसरा गीतार्थ अपने अतिचार की आलोचना करना चाहता है । वह अगीतार्थ के समक्ष आलोचना नहीं कर सकता। तब वह अगीतार्थ के साथ गूढार्थ वाले वाक्यों द्वारा अपने अतिचार का निवेदन देशान्तरवासी गीतार्थ के पास कराता है। इसका नाम है आज्ञा । २. धारणा - ( १ ) निषेधात्मक आदेश । ' स्थान ५ : टि० ४२-४६ (२) बार-बार आलोचना के द्वारा प्राप्त प्रायश्चित्त विशेष का अवधारण करना। Jain Education International पांच व्यवहारों में ये दो व्यवहार हैं। इनका विस्तृत विवेचन ५।१२४ में किया है। ४३. यथारात्निक (सू० ४८ ) इसका अर्थ है - दीक्षा - पर्याय में छोटे-बड़े के क्रम से । विशेष विवरण के लिए देखें -- दसवेलियं ८।४० का टिप्पण | ४४. कृतिकर्म (सू०४८ ) इसका अर्थ है वन्दना । देखें -- समवाओ १२।३ का टिप्पण | ४५. उचित समय ( सू० ४८ ) इसका तात्पर्यार्थ यह है कि कालक्रम से प्राप्त सूत्रों का अध्ययन उस उस काल में ही कराना चाहिए। सूत्रों का अध्ययन-अध्यापन दीक्षा पर्याय के कालानुसार किया जाता है। जैसे- तीन वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले को आचार चार वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले को सूत्रकृत, पांच वर्ष वाले को दशाgतस्कंध, वृहत्कल्प और व्यवहार, आठ वर्ष वाले को स्थान और समवाय, दश वर्ष वाले को भगवती आदि । ४६. निषद्या (सू०५० ) इसका अर्थ है- बैठने की विधि। इसके पाँच प्रकार हैं। बाह्य तप के पांचवें प्रकार 'कायक्लेश' में इनका समावेश होता है। कोस के तीन प्रकार हैं-ऊस्थान, निवदनस्थान और शयनस्थान । निषीदनस्थान के अन्त ति इन पांचों निषद्याओं का अन्तर्भाव होता है। देखें - ७/४६ का टिप्पण | १. स्यातांगवृत्ति, पत्र २८६ : 'आज्ञा' हे साधो ! भवतेदं विधेयमित्येवंरूपामादिष्टिम् । २. वही, वृत्ति पत्र २८६ : गूढार्थपदैरगीतार्थस्य पुरतो देशान्तरस्थगीतार्थं निवेदनाय गोतार्थो यदतिचार निवेदनं करोति साऽऽज्ञा । ३. वही, वृत्ति पत्र २८६ धारणां, न विधेयमिदमित्येवंरूपाम् । ४. वही, वृत्ति पत्र २८६ असकृदालोचनादानेन यत्प्रायश्चित्तविशेषावधारणं सा धारणा । ५. बही, वृत्ति, पत्र २८६ : काले काले - यथावसरम् । कालककमेण पत्तं संवच्छरमाइणा उ जं जंमि । तं तंमि चैव धीरो वाएज्जा सो ए कालोऽयं ॥ ६. वहीं, वृत्ति पत्र २८६, २८७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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