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________________ ठाणं (स्थान) ६२० स्थान ५ : टि० ३६-४१ दस प्रकार ये हैं..... १. आचार्य.....ये पाँच प्रकार के होते हैं--प्रव्राजनाचार्य, दिगाचार्य, उद्देसनाचार्य, समुद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य। २. उपाध्याय-सूत्र का वाचना देने वाला। ३. स्थविर–धर्म में स्थिर करनेवाले । ये तीन प्रकार के होते हैंजातिस्थविर ----जिसकी आय ६० वर्ष से अधिक है। पर्यायस्थविर - जिसका पर्याय-काल २० वर्ष या अधिक है। ज्ञानस्थविर--स्थानांग तथा समवायांग का धारक। ४. तपस्वी-मासक्षपण आदि बड़ी तपस्या करने वाला। ५. ग्लान--रोग आदि से असक्त, खिन्न। ६. शैक्ष-शिक्षा ग्रहण करने वाला, नवदीक्षित।' ७. कुल-एक आचार्य के शिष्यों का समुदाय । ८. गण-कुलों का समुदाय। ६. संघ—गणों का समुदाय । १०. सार्मिक ---वेष और मान्यता में समानधर्मा ।' वृत्तिकार ने शैक्ष वैयावृत्त्य के पश्चात् सार्मिक वैयावृत्त्य की व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने एक गाथा का भ उल्लेख किया है। उसमें भी यही क्रम है।' विशेष विवरण के लिए देखें...-१०।१७ का टिप्पण । ३६-४०. (सूत्र ४६) प्रस्तुत सूत्र के कुछ विशेष शब्दों की व्याख्या--- १. सांभोगिक-एक मंडली में भोजन करने वाला। यह इसका प्रतीकात्मक अर्थ है। स्वाध्याय, भोजन आदि सभी मंडलियों में जिसका सम्बन्ध होता है वह सांभोगिक कहलाता है। २. विसांभोगिक-जिसका सभी मंडलियों से सम्बन्ध विच्छिन्न कर दिया जाता है वह विसांभोगिक है। ३. प्रस्थापन-प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त तप का प्रारंभ । ४. निर्वेश-प्रायश्चित्त का पूर्ण निर्वाह या आसेवन । ५. स्थितिकल्प -सामाचारी की योग्य मर्यादाएँ। ११. प्रश्नायतनो (सू० ४७) वृत्तिकार ने प्रश्न के दो अर्थ किए हैं'-- १. अंगुष्ठ, कुडप आदि प्रश्नविद्या । रस के द्वारा वस्त्र, कांच, अंगुष्ठ, भुजा आदि में देवता को बुलाकर अनेक विध प्रश्नों का हल किया जाता है। मूल प्रश्न व्याकरण सूत्र (दसवें अंग) में इन प्रश्न विद्याओं का समावेश था। १. बौद्ध साहित्य में शैक्ष की परिभाषा इस प्रकार मिलती है'उस समय एक भिक्ष जहां भगवान थे, वहाँ पहुंचा ।... एक ओर बैठा हुआ वह भिक्ष भगवान से यह बोला"भन्ते ! शैक्ष, शैक्ष' कहते हैं। क्या होने से शैक्ष होता है ?" “भिक्षु, सीखता है, इसलिए 'शक्ष' कहलाता है। "क्या सीखता है?" "शील-सम्बन्धी शिक्षा ग्रहण करता है, चित्त-सम्बन्धी शिक्षा ग्रहण करता है तथा प्रज्ञा-सम्बन्धी शिक्षा ग्रहण करता है। इसलिए वह भिक्ष 'शैक्ष' कहलाता है।" (अंगुत्तरनिकाय भाग १, पृष्ठ २३८) २. स्थानांगवत्ति, पत्र २८५। ३. वही, वृत्ति पत्र २८५ : 'सेह' त्ति शिक्षकोऽभिनव जितः 'साधर्मिकः समानधर्मा लिङ्गतः प्रवचनतश्चेति । उक्तं च आयरिय उवज्झाए थेरतवस्सी गिलाणसेहाण । साहमियकुलगणसंघ संगयं तमिह कायव्वं ।। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८५,२८६।। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६: प्रश्ना-अंगुष्ठकुड्यप्रश्नादयः सावद्यनुष्ठानपृच्छा वा। ६. वही, वृत्ति पत्र २८५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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