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ठाणं (स्थान)
३२. कि ( सू० ४२ )
इसका अर्थ है-बैठने की विधि। इसके पांच प्रकार हैं। देखें स्थानांग ५।५० तथा ७।४६ का टिप्पण । विशेष विवरण के लिए देखें- उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १४३-१४५ ।
३३. आतापक ( सू० ४३ )
६१६
आतापना का अर्थ है-- प्रयोजन के अनुरूप सूर्य का आताप लेना ।
औपपातिक के वृत्तिकार ने आतापना के आसन भेद से अनेक भेद प्रतिपादित किए हैं।
आतापना के तीन प्रकार हैं---
१. निपन्न सोकर ली जाने वाली उत्कृष्ट ।
२. अनिपन्न बैठकर ली जाने वाली - मध्यम ।
३. ऊर्ध्वस्थित - खड़े होकर ली जाने वाली जघन्य ।
निपन्न आतापना के तीन प्रकार हैं
१. अधोरुकशायिता, २. पार्श्वशायिता, ३. उत्तानशायिता ।
अनिपन्न आतापना के तीन प्रकार हैं
१. गोदोहिका, २. उत्कुटुकासनता, ३. पर्यङ्कासनता । ऊर्ध्वस्थान आतापना के तीन प्रकार हैं
१. हस्तिशौंडिका, २. एकपादिका ३ समपादिका ।
इनमें पहला प्रकार उत्कृष्ट, दूसरा मध्यम और तीसरा जघन्य है ।'
प्रस्तुत आठ सूत्रों [ ३६-४३] में विविध तप करने वाले मुनियों का उल्लेख है। इन सबका समावेश बाह्य तप के छह प्रकारों में से तीन प्रकार - भिक्षाचर्या, रसपरित्याग और कायक्लेश के अन्तर्गत होता है। जैसे-
१. भिक्षाचर्या
उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, अज्ञातचरक, अन्नग्लायकचरक, मौनचरक, संसृष्टकल्पिक, तज्जातसंसृष्टकल्पिक, औपनिधिक शुषणिक, संख्यादत्तिक, इष्टलाभिक, पृष्ठलाभिक, परिमितपिंडपातिक भिन्नपिंडपातिक ।
२. रसपरित्याग
अकण्डूक
स्थान ५ : टि० ३२-३५
अन्त्यचरक, प्रान्त्यचरक, रूक्षचरक, आचाम्लिक, निर्विकृतिक, पूर्वाधिक, अरसाहार, विरसाहार, अन्त्याहार, प्रान्त्याहार, रूक्षाहार, अरसजीवी, विरसजीवी, अन्त्यजीवी, प्रान्त्यजीवी, रूक्षजीवी ।
३. कायक्लेश
स्थानाय तिक, उत्कुटुकासनिक, प्रतिमास्थायी, वीरासनिक, नैषधिक, दंडायतिक, लगंडशायी, आतापक, अप्रावृतक,
औपपातिक सूत्र १६ में प्रायः इन सबका इन बाह्य तपों के प्रकारों में उल्लेख मिलता है । वहाँ भिन्नपिंडपातिक तथा अरसजीवी, विरसजीवी, अन्त्यजीवी, प्रान्त्यजीवी और रूक्षजीवी का उल्लेख नहीं मिलता ।
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३४, ३५. ( सू० ४४, ४५ )
दो सूत्रों में दस प्रकार के वैयावृत्त्य निर्दिष्ट हैं। वैयावृत्त्य का अर्थ है-सेवा करना, कार्य में प्रवृत्त होना । अग्लानभाव से किया जाने वाला वैयावृत्त्य महानिर्जरा - बहुत कर्मों का क्षय करने वाला तथा महापर्यवसान - जन्म-मरण का आत्यन्तिक उच्छेद करने वाला होता है। अग्लान भाव का अर्थ है- अखिन्नता, बहुमान ।
१. औपपातिक सूत्र १६, वृत्ति पृष्ठ ७५ ७६ ।
२. स्थानांगवृत्ति पत्र २८५ अग्लान्या -- अखिन्नतया बहुमानेनेत्यर्थः ।
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