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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि० २८-३१
औपपातिक वृत्ति में इसका एकमात्र अर्थ-भोजन के बिना ग्लान होने पर प्रातःकाल ही वासी अन्न खाने वाला किया है। यही अर्थ अधिक संगत लगता है। २८. शुद्धषणिक (सू० ३८)
वृत्तिकार ने इसका अर्थ-अनतिचार एषणा किया है । एषणा के शंकित आदि दस दोष हैं। उनसे रहित एषणा को शुद्धषणा कहा जाता है।
__ पिंडैषणा और पानषणा सात-सात प्रकार की होती हैं। इनमें से किसी एक या सातों एषणाओं से आहार लेने वाला शुद्वैपणिक कहलाता है।
औपपातिक के वृत्तिकार ने इसका अर्थ शंका आदि दोषरहित अथवा नियंजन आहार लेने वाला किया है।' २६. स्थानायतिक (सू० ४२)
__ स्थानांग वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-स्थानातिद और स्थानातिग। स्थान का अर्थ कायोत्सर्ग है। स्थानातिद और स्थानातिग-इन दोनों का अर्थ है-कायोत्सर्ग करने वाला।
ठाणातिए' पद में एकपदीय संधि होने के कारण वृतिकार को इस प्रकार की व्याख्या करनी पड़ी। इसमें मुलतः दो शब्द हैं---ठाण -आयतिय। 'आ' की संधि होने पर ठाणायतिय' बन जाता है। 'य' का लोप करने पर फिर अकार की संधि होती है और 'ठाणातिय रूप बन जाता है। इस संधिच्छेद के आधार पर इसका संस्कृत रूप 'स्थानायतिक' बनता है और यही रूप इसके अर्थ का सूचक है।
वृहत्कल्पभाष्य में ठाणायत' (स्थानायत) पाठ है। उसकी वृत्ति में स्त्रीलिंग के रूप में स्थानायतिका का प्रयोग मिलता है। जिस आसन में सीधा खड़ा होना होता है उसका नाम स्थानायतिक है। स्थान तीन प्रकार के होते हैं --ऊर्ध्वस्थान, निषीदनस्थान और शयनस्थान । स्थानायतिक ऊर्ध्वस्थान का सूचक है। ३०. प्रतिमास्थायी (सू० ४२)
वृत्तिकार ने प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित रहना किया है। कहीं-कहीं प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग भी प्राप्त होता है। बैठी या खड़ी प्रतिमा की भाँति स्थिरता से बैठने या खड़ा रहने को प्रतिमा कहा गया है। यह कायक्लेश तप का एक प्रकार है । इसमें उपवास आदि की अपेक्षा कायोत्सर्ग, आसन व ध्यान की प्रधानता होती है। प्रतिमा की जानकारी के लिए देखें-दशाश्रुतस्कंध, दशा सात। ३१. वीरासनिक (सू० ४२)
सिंहासन पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उसी स्थिति में सिंहासन के निकाल लेने पर स्थित रहना वीरासन है। यह कठोर आसन है। इसकी साधना वीर मनुष्य ही कर सकता है। इसलिए इसका नाम 'वीरासन' है।'
विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १४६, १५० ।
१. औपपातिकसूत्र १६, वृत्ति पृष्ठ ७४ : अण्णगिलायए त्ति अन्न
भोजनं बिना ग्लायति अन्नग्लायकः, स चाभिग्रहविशेषात्
प्रातरेव दोषान्नभुगिति । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८४। ३. औपपातिक सूत्र १९, वृत्ति पृष्ठ ७४ : सुद्देसणिए त्ति शुद्धपणा
शङ्कादिदोषरहितता शुद्धस्य वा नियंञ्जनस्य करादेरेषणा यस्यास्ति स तथा। स्थानांगवृत्ति, पत्र २८४ : 'ठाणाइए' ति स्थानं-कार्योत्सर्ग: तमतिददाति प्रकरोति अतिगच्छति वेति स्थानातिदः स्थानातिगोवेति
५. बृहद्कल्पभाष्य गाथा ५६५३ । ६. वही, गाथा ५६५३, वृत्ति...। ७. स्थानांगवृत्ति, पन २८४ : प्रतिमया-एकरानिक्यादिकया
कायोत्सर्गविशेषेणव तिष्ठीत्येवंशीलो यः स प्रतिमास्थायी। ८. मूलाचारदर्पण ८।२०७१ : पडिमा--कायोत्सर्गः। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८४ : 'वीरासनं' भून्यस्तपादस्य सिंहासने
उपविष्टस्य तदपनयने या कायावस्था तद्रूपं, दुष्करं च तदिति, अत एव वीरस्य -साहसिकस्यासनमिति वीरासनमुक्तम् ।
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