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________________ ठाणं (स्थान) ६१७ स्थान ५: टि०२२-२७ ४. तेजसशरीर-जिससे तेजोलब्धि (उपघात या अनुग्रह किया जा सके वह शक्ति) मिले और दीप्ति एवं पाचन हो वह शरीर। ५. कार्मणशरीर--कर्म-समूह से निष्पन्न अथवा कर्मविवार को कार्मण शरीर व हते हैं। तैजस और कार्मणशरीर सभी जीवों के होते हैं। २२. (सू० ३२) उत्तराध्ययन के तेईसवें अध्ययन (२३, २६, २७) में बताया है कि प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होते हैं, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कटिन होता है । अन्तिम तीर्थकर के साधु क्वजड़ होते हैं, उनके लिए धर्म का आचरण करना कटिन होता है। इस सूत्र में दोनों तीर्थंकरों के साधुओं के लिए पाँच दुर्गम स्थान बताए हैं। यदि उनका विभाग किया जाए तो प्रथम तीन प्रथम तीर्थक र के साधुओं के लिए और अन्तिम दो अन्तिम तीर्थकर के साधुओं के लिए हैं और यदि विभाग न किया जाए तो इस प्रकार व्याख्या की जा सकती है प्रथम तीर्थंकर के साधुओं को समझने में कठिनाई होती है, इसीलिए उनके लिए धर्म के अनुपालन में भी कठिनाई होती है। अन्तिम तीर्थकर के साधुओं में तितिक्षा और अनुपालन की शक्ति कम होती है, इसलिए तत्त्व का आख्यान करना भी उनके लिए दुर्गम हो जाता है। देखें-उत्तरज्झयणाणि, अध्ययन २३ । २३, २४. (सू० ३४, ३५) देखें-१०।१६ का टिप्पण। २५, २६. अन्त्यचरक, प्रान्त्यचरक (सू० ३६) वृत्तिकार ने अन्त्य चरक का अर्थ-बचा-खुचा जघन्य धान्य लेने वाला और प्रान्त्यचरक का अर्थ- बासी जघन्य धान्य लेने वाला किया है। औपपातिक (सूत्र १६) की वृत्ति में इनका अर्थ किञ्चित् परिवर्तन के साथ किया है। अन्त्यचरक-जघन्य धान्य लेने वाला। प्रान्त्यचरक-बचा-खुचा या बासी अत्यन्त जघन्य धान्य लेने वाला। प्रस्तुत सूत्र में प्रथम दो भिक्षाचर्या और शेष तीन रसपरित्याग के अन्तर्गत आते हैं। उत्क्षिप्तचरक और निक्षिप्तचरक ये दोनों भाव-अभिग्रह हैं और शेष तीन द्रव्य-अभिग्रह। २७. अन्नालायकचरक (सू० ३७) वृत्तिकार ने इसके तीन संस्कृत रूप देकर उनकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है१. अन्नग्लानकचरक-वासी अन्न खाने वाला। २. अन्नग्लायकचरक--अन्न के बिना ग्लान होकर--भूख की वेदना से पीड़ित होकर खाने वाला। ३. अन्यग्लायकचरक-दूसरे ग्लान व्यक्ति के लिए भोजन की गवेषणा करने वाला। १. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८३ : अन्ते भवमान्त-भुक्तावशेषं वल्लादि प्रकृष्टमान्तं प्रान्त-तदेव पर्युषितम् । २. औपपातिकवृत्ति, पृष्ठ ७५ : अन्त्य- जघन्यधान्यं बल्लादि, पंताहारेति-प्रकर्षणान्त्यं वल्लाद्येव भुक्तावशेष पर्युषितं वा। ३. स्थानांगवृत्ति, पन २८३ : अन्नइलायचरए त्ति अन्नग्लानको दोषान्नभुगिति..... अथवा अन्नं विना ग्लायक:- समृत्पन्नवेदनादिकारण एवेत्यर्थः, अन्यस्मै वा ग्लाय काय भोजनार्थं चरतीति अग्मग्लानकचरकोऽन्नग्लायकचरकोज्यग्लायकचरको वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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