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ठाणं (स्थान)
स्थान ५: टि०२०-२१
४. चार मार्गों का समागम। ५. छह मागों का समागम। स्थानांग वृत्तिकार ने इसका अर्थ आठ रथ्याओं का मध्य किया है।' ५. चतुर्मुख----देवकुल आदि का मार्ग।' देवकुलों के चारों ओर दरवाजे होते हैं। ६. महापथ---राजमार्ग। ७. पथ-सामान्यमार्ग। ८. नगर निर्द्धमन—नगर के नाले।' ६. शांतिगृह-जहाँ राजा आदि के लिए शांतिकर्म-होम, यज्ञ आदि किया जाता है। १०. शैलगृह--पर्वत को कुरेद कर बनाया हुआ मकान। ११. उपस्थानगृह-सभामण्डप।' १२. भवन-गृह-कुटुम्बीजन (घरेलू नौकर) के रहने का मकान।
भवन और गृह का अर्थ पृथक् रूप में भी किया जा सकता है। जिसमें चार शालाएं होती हैं उसे भवन और जिसमें कमरे (अपवरक) होते हैं वह गृह कहलाता था।'
२०. (सू २२)
प्रस्तुत सूत्र में केवलज्ञान-दर्शन के विचलित न होने के पाँच स्थानों का निर्देश है। अविचलन के हेतु ये हैं१. यथार्थ वस्तुदर्शन। २. मोहनीय कर्म की क्षीणता। ३. भय, विस्मय और लोभ का अभाव । ४. अति गंभीरता।
२१. (सू० २५)
शरीर पांच प्रकार के हैं
१. औदारिक शरीर-स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न, रसादि धातुमय शरीर। यह मनुष्य और तिर्यञ्चों के ही होता।
२. वैक्रिय शरीर—विविध रूप करने में समर्थ शरीर। यह नैरयिकों तथा देवों के होता है। वैक्रिय-लब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यञ्चों तथा वायुकाय के भी यह होता है।
३. आहारकशरीर—आहारकलब्धि से निष्पन्न शरीर। आहारकलब्धि से सम्पन्न मुनि अपनी संदेह निवृत्ति के लिए अपने आत्म-प्रदेशों से एक पुतले का निर्माण करते हैं और उसे सर्वज्ञ के पास भेजते हैं। वह उनके पास जाकर उनसे संदेह की निवृत्ति कर पुनः मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है । यह क्रिया इतनी शीघ्र और अदृश्य होती है कि दूसरों को इसका पता भी नहीं चल सकता। इस क्षमता को आहारकलब्धि कहते हैं।
१. अल्पपरिचित शब्दकोष । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २८० : चत्वररथ्याष्टकमध्यम् । ३. स्थानांगवृत्ति, पन्न २८० : चतुर्मुख-देवकुलादि । ४. वही, पत्र २८० : नगरनिर्द्धमनेषु-तत्क्षालेषु । ५. वही, पत्र २८० : शान्तिगह-यत्र राज्ञां शान्तिकमहोमादि
क्रियते। ६. वही, पन २८० : शैलगृहं--पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतम् ।
७ वही, पन्न २८० : उपस्थानगृह-आस्थानमण्डपः । ८. वही, पत्र २८० : भवनगृह-यत्र कुटुम्बिनो वास्तव्या
भवन्तीति ... तव भवनं-- चतुःशालादि गृहं तु अपवरकादि
मावम्। १. स्थानांगवत्ति, पत्र २८०: केवलज्ञानदर्शनं तु न स्कन्नीयात्
केवली वा याथात्म्येन वस्तुदर्शनात् क्षीणमोहनीयत्वेन भयविस्मयनोभाद्यभावेन अतिगम्भीरत्वाच्चेति ।
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