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ठाणं (स्थान)
४. (सू०१८ )
अनिःश्रेयस अकल्याण ।
अननुगामिक- भविष्य में उपकारक के रूप में साथ नहीं देने वाला ।
देखें-- २।२४३-२४८ का टिप्पण ।
५. ( सू० २० )
जिस प्रकार दिशाओं के अधिपति इन्द्र, अग्नि आदि हैं, नक्षत्रों के अधिपति अश्वि, यम, दहन आदि हैं, शक्र दक्षिण लोक का अधिपति और ईशान उत्तर लोक का अधिपति है, उसी प्रकार पांच स्थावर कायों में भी क्रमशः इन्द्र, ब्रह्म, शिल्प, सम्मति और प्राजापत्य अधिपति हैं ।'
६-१६ ( सू० २१)
प्रस्तुत सूत्र में अवधि दर्शन के विचलित होने के पाँच स्थानों का निर्देश है। विचलन का मूल कारण है मोह की चतुर्विध परिणति -- विस्मय, दया, लोभ और भय का आकस्मिक प्रादुर्भाव । जो दृश्य पहले नहीं देखा था उसको देखते ही व्यक्ति का मन विस्मय से भर जाता है, जीवमय पृथ्वी को देख वह दया से पूर्ण हो जाता है तथा विपुल धन, ऐश्वर्य आदि देखकर वह लोभ से आकुल और अदृष्टपूर्व सर्पों को देखकर वह भयाक्रान्त हो जाता है। अतः विस्मय, दया, लोभ और भय भी उसके विचलन के कारण बनते हैं।"
इस सूत्र के कुछ विशेष शब्दों की मीमांसा
१. पृथ्वी को छोटा-सा
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं
१. थोड़े जीवों वाली पृथ्वी ।
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२. छोटी पृथ्वी ।
अवधि ज्ञान उत्पन्न होने से पूर्व साधक के मन में कल्पना होती है कि पृथ्वी बड़ी तथा बहुत जीवों वाली है, पर जब वह उसे अपनी कल्पना से विपरीत पाता है, तब उसका अवधिदर्शन क्षुब्ध हो जाता है । '
३. ग्राम नगर आदि के टिप्पण के लिए देखें २।३६० का टिप्पण । शेष कुछेक शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है
१. शृंगाटक- तीन मार्गों का मध्य भाग। इसका आकार यह होगा > ।
२. तिराहा - जहाँ तीन मार्ग मिलते हों। इसका आकार यह होगा 1 ।
३. चौक--चार मार्गों का मध्य भाग। ' चतुष्कोण भूभाग । ४. चौराहा--जहाँ चार मार्ग मिलते हों। इसका आकार यह + होगा। भिन्न-भिन्न व्याख्या ग्रन्थों में इसके अनेक अर्थ मिलते हैं
१. सीमाचतुष्क ।
२. विपथभेदी ।
३. बहुतर रथ्याओं का मिलन-स्थान ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७६
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र २७६ २८० : अत्यन्त विस्मयदयाभ्यामिति..... विस्मयाद् भयाद्वा अदृष्टपूर्वतया विस्मयाल्लोभावेति ।
स्थान ५ : टि० ४-१६
३. वही, पत्र २७६ : अल्पभूतां स्तोकसत्त्वां पृथिवीं दृष्ट्वा, वाशब्दा विकल्पार्थाः, अनेकसत्वव्याकुला भूरिति ।
४. स्थानांगवृत्ति पत्र २८०
शृङ्गाटकं त्रिकोण रथ्यान्तरम् । ५. वही पत्र २८० त्रिकं यत्र रथ्यानां तयं मिलति । ६. वही, पत्र २८० ।
७. वही पत्र २८० चतुष्कं यत्न रष्याचतुष्टयम् ।
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