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ठाणं (स्थान)
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स्थान ५: टि०५८-५९
उक्त व्याख्या के आधार पर यह फलित होता है कि प्रथम दो सूत्र असम्यग्दर्शी हेतुबादी तथा तीसरा-चौथा सूत्र सम्यग्दर्शी हेतुवादी की अपेक्षा से हैं। पांचवां-छठा सूत्र अपूर्ण प्रत्यक्षानी और सातवां-आठवां सूत्र एर्णप्रत्यक्षज्ञानी की अपेक्षा से हैं।
मरण दो प्रकार का होता है-सहेतुक (सोपक्रम), अहेतुक (निरुपक्रम) । असम्यग्दर्शी हेतुवादी का अहेतुक मरण अज्ञानमरण कहलाता है । सम्यग्दर्शी हेतुवादी का सहेतुक मरण छद्मस्थ मरण कहलाता है। अपूर्ण प्रत्यक्षज्ञानी का सहेतुक मरण भी छद्मस्थ मरण कहलाता है । पूर्ण प्रत्यक्षज्ञानी का अहेतुक मरण केवली मरण कहलाता है।
वृत्ति कार के अनुसार प्रथम दो सूत्रों में नकार कुत्सावाची और पांचवें-छठे सूत्र में वह देश निषेधवाची है। इस आधार पर प्रथम दो सूत्रों का अनुवाद इस प्रकार होगा.---.
१. (क) हेतु को असम्यक् जानता है।
(ख) हेतु को असम्यक् देखता है। (ग) हेतु पर असम्यक् श्रद्धा करता है ।
(घ) हेतु को असम्यक् रूप से प्राप्त करता है। २. (क) हेतु से असम्यक् जानता है।
(ख) हेतु से असम्यक् देखता है। (ग) हेतु से असम्यक् श्रद्धा करता है।
(घ) हेतु से असम्यक रूप से प्राप्त करता है।
वृत्तिकार ने लिखा है कि प्रत्यक्षज्ञानी को अनुमान से जानने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए वह धूम आदि साधनों-हेतुओं को अहेतु के रूप में (उसके लिए वे हेतु नहीं है इस रूप में) जानता है। अहेतु का यह अर्थ अस्वाभाविक-सा लगता है।
___ इन आठ सूत्रों (७५ से ८२) में प्रयुक्त चार क्रियापद (जानाति, पश्यति, बुध्यते, अभिगच्छति) ज्ञान के क्रम से सम्बन्धित हैं।
भगवती ५११६१-१९८ में हेतु सम्बन्धी सूत्रों के क्रम में थोड़ा परिवर्तन है। वहां यहां बताए गए सातवें-आठवें सूत्र को पांचवें-छठे के क्रम में तथा पांचवें-छठे को सातवें-आठवें के क्रम में लिया गया है।
५८. (सू०८३)
ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का सर्वथा क्षय होने पर अनुत्तर ज्ञान और अनुत्तर दर्शन की प्राप्ति होती है। मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने पर अनुत्तर चारित्र की प्राप्ति होती है । तप चारित्र का ही भेद है। तेरहवें जीवस्थान के अन्तिम क्षणों में केवली शुक्लध्यान के अन्तिम दो भेदों में प्रवृत्त होते हैं। यह उनका अनुत्तर तप है। ध्यान आभ्यंतर तप का ही एक प्रकार है। वीयन्तिराय कर्म का सर्वथा क्षय होने पर अनृत्तर वीर्य की प्राप्ति होती है।
५६. (सू०६७)
भगवान महावीर का च्यवन, गर्भसंहरण, जन्म, प्रव्रज्या और कैवल्यप्राप्ति-ये पांच कार्य उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में हुए थे तथा उनका परिनिर्वाण स्वाति नक्षत्र में हुआ था। अन्यान्य तीर्थंकरों का च्यवन, परिनिर्वाण आदि एक ही नक्षत्र में हुआ है। भगवान् महावीर के जन्म और परिनिर्वाण के नक्षत्र अलग-अलग हैं।'
१. स्थानांगवृत्ति, पन २६१ : नत्रः कृत्सार्थत्वात्..... नमो देश
निषेधार्थत्वात् । २. वही, पन २०११
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २९२। ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६३ ।
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