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________________ ठाणं (स्थान) ६२५ स्थान ५ : टि० ६०-६२ ६०. (सू०६८) प्रस्तुत सूत्र में महानदियों के उत्तरण और संतरण की मर्यादा के अतिक्रमण का निषेध किया गया है और इसमें निषेध का अपवाद भी है। सूत्रकार ने निर्दिष्ट पाँच नदियों के लिए दो विशेषण प्रयुक्त किए हैं-महार्णव और महानदी। वृत्तिकार ने इनका अर्थ इस प्रकार किया है१. महार्णव--समुद्र की भांति जिनमें अथाह जल हो या जो समुद्र में जा मिलती हों उन नदियों को महार्णव कहा जाता है। २. महानदी-जो बहुत गहरी हों, उन्हें महानदी कहा जाता है। वत्तिकार ने एक गाथा (निशीथभाष्य गाथा ४२२३) का उल्लेख कर नदी-संतरण के व्यावहारिक दोषों का निर्देश किया है। इन नदियों में बड़े-बड़े मत्स्य, मगरमच्छ आदि अनेक भयंकर जलचर प्राणी रहते हैं । अत: उनका प्रतिपल भय बना रहता है। इन नदी-मागों में अनेक चोर नौकाओं में घूमते हैं । वे मनुष्यों को मार डालते हैं तथा उनके वस्त्र आदि लूट ले जाते हैं। निशीथ (१२/४३) में भी नदी उत्तरण तथा संतरण का निषेध है। भाष्यकार ने अपायों का निर्देश देते हुए बताया है कि नौका संतरण से १. श्वापद और चोरों का भय । २. अनुकम्पा तथा प्रत्यनीकता का दोष । ३. संयम-विराधना, आत्म-विराधना का प्रसंग। ४. नौका पर चढ़ते-उतरते अनेक दोषों की सम्भावना । गंगा आदि नदियों के विवरण के लिए देखें-१०।२५। ६१, ६२. (सू० ६६, १००) वर्षावास तीन प्रकार का माना गया है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जघन्य-सत्तर दिनों का-संवत्सरी से कार्तिक मास तक । मध्यम-चार मास का-थावण से कार्तिक तक। उत्कृष्ट---छहमास का-आषाढ़ से मृगसर तक, जैसे-आषाढ़ बिताकर वहीं चातुर्मास करें और मृगसर में वर्षा चालू रहने पर उसे वहीं बिताएँ। यहाँ दो सूत्रों में (६६,१००) बताया गया है कि प्रथम-प्रावृट् में और वर्षावास में पर्युषणा कल्प के द्वारा निवास करने पर विहार न किया जाए। प्रावृट् का अर्थ है-आषाढ़ और श्रावण अथवा चार मास का वर्षाकाल । आषाढ़ को प्रथम-प्रावृट् कहा जाता है। प्रथम-प्राबृट् में विहार न किया जाए -- अर्थात् आषाढ़ में बिहार न किया जाए। प्रावृट् का अर्थ यदि चतुर्मास प्रमाण- वर्षाकाल किया जाए तो प्रथम-प्रावृट् में विहार के निषेध का अर्थ यह करना होगा कि पर्यषणा कला से पूर्ववर्ती पचास दिनों में विहार न किया जाए। पर्युषणा कल्पपूर्वक निवास करने के बाद विहार न किया जाए। इसका १. स्थानांगवत्ति, पत्र २६४ : महार्णव इवा या बहूदकत्वात् महार्णवगामिन्यो वा यास्ता वा महार्णवा महानद्यो-गुरु निम्नगाः। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६४ : ओहारमगराया, घोरा तत्थ उ सावया। सरीरोवहिमादीया, नावातेणा य कत्थइ ।। ३. निशीथभाष्य, गाथा ४२२४ : सावयतेणे उभयं, अणुकंपादी विराहणा तिण्णि । संजम आउभयं वा, उतरणावृत्तरते य ।। ४. स्थानांगवत्ति, पत्र २६४ : आषाढश्रावणी प्रावृट् .... अथवा चतुर्मास प्रमाणो वर्षाकालः प्रावृद्धिति विवक्षितः । ५. वही, पत्र २६४ : आषाढस्तु प्रथमप्रावट ऋतूनां वा प्रथमेति प्रथमप्रावृट् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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