SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 667
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ६२६ स्थान ५ : टि०६३-६४ अर्थ है कि भाद्रशुक्ला पंचमी से कार्तिक तक विहार न किया जाए। इन दोनों सूत्रों का संयुक्त अर्थ यह है कि चातुर्मास में बिहार न किया जाय। प्रश्न होता है-'चातुर्मास में विहार न किया जाए' इस प्रकार एक सूत्र द्वारा निपेध न कर, दो पृथक् सुवों (सूत्र ६८, १००) द्वारा निषेध क्यों किया गया ? इसका समाधान ढूंढ़ने पर सहज ही हमारा ध्यान उस प्राचीन परम्परा की ओर खिंच जाता है, जिसके अनुसार यह विदित है कि-मुनि पर्युषणा कल्पपूर्वक निवास करने के बाद साधारणतः विहार कर ही नहीं सकते। किन्तु पूर्ववर्ती पचास दिनों में उपयुक्त सामग्री के अभाव में विहार कर भी सकते हैं।' बौद्ध साहित्य में भी दो वर्षावासों का उल्लेख मिलता है-- "भिक्षुओ ! दो वर्षावास हैं।" "कौन से दो?" "पहला और पिछला।" प्रस्तुत सूत्र (EE) में वृत्तिकार ने 'पब्वहेज्ज' का अर्थ-ग्राम से निकाल दिए जाने पर-किया है और इसके पूर्वदर्ती सूत्र में इसी शब्द का अर्थ ----व्यथित या प्रवाहित किए जाने पर किया है।" ६३. सागारिकपिंड (सू० १०१) इसका अर्थ है- शय्यातर के घर का भोजन, उपधि आदि। जिस मकान में साधु रहते हैं, उसके स्वामी को शय्यातर कहा जाता है। शय्यातर के घर का पिंड आदि लेने का निषेध है । इसके कई दोष हैं—५ १. तीर्थंकर की आज्ञा का अतिक्रमण । २. अज्ञातोञ्छ का सेवन । ३. अलाचवता आदि-आदि । ६४. रापिड (सू० १०१) प्रस्तुत प्रसंग में वृत्तिकार ने राजा का अर्थ चक्रवर्ती आदि किया है। जो मूर्धाभिषिक्त है और जो सेनापति, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाह-इन पाँच रत्नियों सहित राज्य-भोग करता है, उसे राजा कहा जाता है। उसके घर का भोजन राजपिंड कहलाता है। सामान्य राजाओं के घर का भोजन राजपिंड नहीं कहलाता। राजपिंड आठ प्रकार का होता है-अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल और पादपोंछन (रजोहरण)। राजपिंड के ग्रहण करने में भी अनेक दोप उत्पन्न होते हैं १. तीर्थकर की आज्ञा का उल्लंघन। २. राज्याधिकारियों के प्रवेश और निर्गमन के समय होने वाला व्याघात। ३. लोभ, आशंका आदि-आदि। विशेष विवरण के लिए देखें१. निशीथभाष्य, गाथा २४६६-२५११ । २. दरावेआलियं, ३१३ में रायपिंडे किमिच्छए' का टिप्पण । १. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६४, २६५ । २. अंगुत्तरनिकाय, भाग १, पृष्ठ ८४ । ३. स्थानांगदृति, पत्र २१५: प्रब्यथेत-ग्रामाच्चालयेन्निष्काशयेत् । ४. वही, पत्र, २६४ : 'पबहेज्ज' त्ति प्रव्यथते-बाधते अन्तर्भूत कारितार्थत्वाद्वा प्रवाहयेत् कश्चित् प्रत्यनीकः । ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६६ ।। ६. स्थानांगवृत्ति, पन्न, २९६ : राजा चेह चक्रवर्त्यादिः । ७. निशीथभाष्य, गाथा २४६७ । जो मुद्धा अभिसित्तो, पचहि सहिओ पभुंजते रज्ज । तत्स तु पिंडो वज्जो, तबिवरीयम्मि भयणा तु ।। ८. वही, गाथा २५०० : असणादिया चउरो, वत्थे पाए य कंबले चेव । पाउंछणगा य तहा, अट्टविहो राय-पिंडो उ॥ ६. वही, गाथा २५०१-२५१२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy