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________________ ठाणं (स्थान) ६२७ स्थान ५ : टि० ६५-६६ ६५. अन्तःपुर (सू० १०२) राजा के अन्तःपुर तीन प्रकार के होते हैं। १. जीर्ण-जहाँ वृद्ध रानियाँ रहती हैं। २. नव--जहाँ युवा रानियाँ रहती हैं। ३. कन्यक.----जहाँ अप्राप्त यौवना राजकुमारियाँ (बारह वर्ष के उम्र तक की) रहती हैं। इनके प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-स्वस्थानगत और परस्थानगत। सामान्यतः मुनि को अन्तःपुर में नहीं जाना चाहिए। क्योंकि वहाँ जाने से १. आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना आदि दोष उत्पन्न होते हैं। २. दंडारक्षित, दौवारिक आदि के प्रवेश-निर्गमन से व्याघात होता है। ३. वहाँ निरन्तर होने वाले गीत आदि में उपयुक्त होकर मुनि ईर्यासमिति और एषणासमिति में स्खलित हो सकता है। ४. रानियों के आग्रह पर शृंगार आदि की कथाएँ कहनी पड़ती है। ५. धर्म-कथा करने से मन में अहं पैदा हो सकता है कि मैंने राजा-रानी को धर्म-कथन किया है। ६. वहाँ शृंगार आदि के दृश्य व शब्द सुनकर स्वयं को अपने पूर्व क्रीडित भोगों की स्मृति हो सकती है आदि आदि। वृत्तिकार ने भी चार गाथाएँ उद्धत कर इन्हीं उपायों का निर्देश किया है। ये गाथाएँ निशीथभाष्य की हैं। प्रस्तुत सूत्र में अंतःपुर में प्रवेश करने के कुछेक कारणों का निर्देश है। यह आपवादिक सूत्र है। ६६. प्रातिहारिक (सू० १०२) मुनि दो प्रकार की वस्तुएँ ग्रहण करता है१. स्थायी रूप से काम आने वाली, जैसे-वस्त्र, पान, कंबल, भोजन आदि-आदि। २. अस्थायी रूप से, काल-विशेष के लिए, काम आनेवाली, जैसे—पट्ट, फलक, पुस्तक, शय्या, मंस्तारक आदि आदि। जो बस्तु स्थायी रूप से गृहीत होती है, उसे मुनि पुनः नहीं लौटा सकता : जो वस्तु प्रयोजन-विशेष या अस्थायी रूप से गृहीत होती है उसे पुनः लौटा सकता है। इसे प्रातिहारिक बस्तु कहा जाता है।' ६७, ६८. आराम, उद्यान (सू० १०२) आराम का अर्थ है-विविध प्रकार के फूलों वाला बगीचा।' उद्यान का अर्थ है-चम्पक आदि वृक्षों वाला बगीचा।' ६६. (सू० १०३) प्रस्तुत सूत्र में पुरुष के सहवास के बिना भी गर्भ-धारण के पाँच कारणों का उल्लेख है। इन सब में पुरुष के वीर्यपुद्गलों का स्त्री योनि में समाविष्ट होनेसे गर्भ-धारण होने की बात कही गई है। वीर्य पुद्गलों के बिना गर्भ-धारण का १. निशीथभाष्य, गाथा २५१३ : अतेउरं च तिविधं, जुष्ण गवं चेव कण्णगाणं च । एक्केक्कं पि य दुविधं, सटाणे चेव परठाणे ॥ २. वही, गाथा २५१४-२५२० । ३. वही, गाथा २५१३, २५१४, २५१८, ६५१९ । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६७ । ५. स्थानांगवत्ति, पत्र २६७ : आरामो विविधपुणजात्युप शोभितः । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६७ : उद्यानं तु चम्पकवना पशोभित मिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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