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________________ ri (स्थान) ६२८ स्थान ५ : टि०७०-७१ उल्लेख नहीं है। वर्तमान में कृत्रिम गर्भाधान की प्रणाली से इसकी तुलना हो सकती है। सांड या पाडे के वीर्य पुद्गलों को निकालकर रासायनिक विधि से सुरक्षित रखा जाता है और आवश्यकतावश गाय या भैंस की योनि से उनको शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। गर्भावधि पूर्ण होने पर गाय या भैंस प्रसव कर बच्चे को उत्पन्न करती है । इसी प्रकार अमेरिका में 'टेस्ट ट्यूब बेबीज' की बात प्रचलित है। पुरुष के वीर्य - पुद्गलों को काँच की एक नली में, उचित रासायनिक मिश्रणों में रखा जाता है और यथासमय बच्चे की उत्पत्ति होती है। उसी काँच की नली में कुछ बड़े होने पर उसे निकाल दिया जाता है। प्रस्तुत सूत्र के प्रथम कारण को ध्यान में रखकर ही आगमों में स्थान-स्थान पर ऐसे उल्लेख किए गए हैं कि जहाँ स्त्रियां बैठी हों, उस स्थान पर मुनि को तथा जहाँ पुरुष बैठे हों उस स्थान पर साध्वी को एक अन्तर्मुहूर्त तक नहीं बैठना चाहिए। यदि आवश्यकता वश बैठना ही पड़े तो भूमि का भलीभाँति प्रमार्जन कर बैठना चाहिए। दूसरे कारण में शुक्रपुद्गल से संसृष्ट वस्त्र का योनि के मध्य में प्रवेश होने पर भी गर्भधारण की स्थिति हो जाती है । वस्त्र ही नहीं, दूसरे दूसरे पदार्थों से भी ऐसा हो सकता है । वृत्तिकार ने यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत किया है । केशिकुमार की माता ने अपनी योनि की खुजली मिटाने अथवा रक्त प्रवाह को रोकने के लिए केश को योनि में प्रविष्ट किया। वह केश शुक्र-पुद्गलों से संसृष्ट था। उसके फलस्वरूप वह गर्भवती हो गई, अथवा कभी अज्ञानवश शुक्रसंश्लिष्ट वस्त्रों को पहनने पर वे अकस्मात् योनि में प्रवेश पा लें, तो भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है । तीसरे कारण की भावना यह है कि यदि किसी स्त्री का पति नपुंसक है और वह स्त्री पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखती है किन्तु शील भंग होने के भय से पर पुरुष के साथ काम-क्रीड़ा नहीं कर सकती । अतः वह स्वयं शुक्र पुद्गलों को एकत्रित कर अपनी योनि में प्रविष्ट कर देती है। इससे भी गर्भधारण कर सकती है। चौथे कारण के प्रसंग में वृत्तिकार ने 'पर' का अर्थ 'श्वसुर आदि' किया है। इसका तात्पर्य यह है कि पति के नपुंसक होने पर पुत्र प्राप्ति की प्रबल इच्छा से प्रेरित होकर स्त्री अपने श्वसुर आदि ज्ञातिजनों द्वारा अपनी योनि में शुक्र पुद्गलों का प्रवेश करवाती है । उस समय इस प्रकार की पद्धति प्रचलित थी। इसे नियोग विधि कहा जाता है । पांचवां कारण स्पष्ट है। ये सभी कारण एक दृष्टि से कृत्रिम गर्भाधान के प्रकार हैं। किसी विशिष्ट प्रणाली द्वारा शुक्र-मुगलों का योनि में प्रवेश होने पर गर्भ की स्थिति बनती है, अन्यथा नहीं । ७०,७१, (सू० १०४) वृत्तिकार ने बारह वर्ष तक की कुमारी को अप्राप्तयौवना कहा है तथा पचास या पचपन वर्ष के ऊपर की उम्र वाली स्त्री को अतिक्रान्तयौवना माना है ।" उनकी मान्यता है कि बारह वर्ष से पचास वर्ष की उम्र तक स्त्री में रजःस्राव होता है और वही उसकी गर्भधारण की अवस्था होती है । सोलह वर्ष की कुमारी का बीस वर्ष के युवक के साथ सहवास होने से वीर्यवान् पुत्र की उत्पत्ति होती है, क्योंकि उस अवस्था में गर्भाशय, मार्ग, रक्त, शुक्र, अनिल और हृदय - ये शुद्ध होते हैं। सोलह और बीस वर्ष से कम अवस्था में सहवास होने पर संतान की प्राप्ति नहीं होती और यदि होती है तो वह रोगी, अल्पायु और अभागी होती है।" १ स्थानांगवृत्ति, पत्र २६८ अप्राप्तयौवना प्राय आवर्षद्वादशकादार्त्तवाभावात् तथाऽतिक्रान्तयोवना वर्षाणां पञ्चपञ्चा शतः पञ्चाशतो वा । Jain Education International २. वही, पत्र २६८ मासि मासि रजः स्त्रीणामजस्रं सवति व्यहम् । वत्सराद् द्वादशादूर्ध्व याति पञ्चाशतः क्षयम् ॥ पूर्णषोडशवर्षा स्त्री पूर्णविशेन संगता । शुद्धे गर्भाशये मार्गे रक्त शुक्रेऽनिले हृदि ॥ वीर्यवन्तं सुतं सूते ततो न्यूनान्दयोः पुनः । रोग्यल्पायुरधन्यो वा गर्भो भवति नैव वा ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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