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________________ ठाणं (स्थान) ७२. (सू० १०५) वृत्तिकार ने अगडि विणी का एक दूसरा अर्थ भी किया है अग अर्थात् काम का विभिन्न पुरुषों के साथ अतिशय आसेवन करने से स्त्री गर्भधारण नहीं करती जैसे - वेश्या । ' ७३. अकस्मात्दंड (सू० १११ ) सूत्रकृतांग २/२ में तेरह क्रियाओं का प्रतिपादन है । प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित दंड उन्हीं के पांच प्रकार हैं। अकस्मात् दंड - वृत्तिकार ने लिखा है कि मगधदेश में यह शब्द इसी रूप में आबाल गोपाल प्रसिद्ध है। अतः प्राकृत भाषा में भी इसको इसी रूप में स्वीकार कर लिया है। ६२६ ७४-८५. (सू० ११२-१२२ ) प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों में पांच-पांच के क्रम से विभिन्न प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख हुआ है। दूसरे स्थान में दो-दो के क्रम से इन्हीं क्रियाओं का उल्लेख है । देखें-- २१२ ३७ के टिप्पण | ८६. ( सू० १२४ ) पांच व्यवहार – भगवान् महावीर तथा उत्तरवर्ती आचार्यों ने संघ व्यवस्था की दृष्टि से एक आचार संहिता का निर्माण किया । उसमें मुनि के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य या प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्देश हैं । उसकी आगमिक संज्ञा 'व्यवहार' है । जिनसे यह व्यवहार संचालित होता है, वे व्यक्ति भी, कार्य-कारण की अभेददृष्टि से, 'व्यवहार' कहलाते हैं । प्रस्तुत सूत्र में व्यवहार संचालन में अधिकृत व्यक्तियों की ज्ञानात्मक क्षमता के आधार पर प्राथमिकता बतलाई गई है। परोक्ष के तीन प्रकार हैं १. चतुर्दशपूर्वधर, २. दशपूर्वधर, ३. नौ पूर्वधर । व्यवहार संचालन में पहला स्थान आगमपुरुष का है। उसकी अनुपस्थिति में व्यवहार का प्रवर्तन श्रुत पुरुष करता है । उसकी अनुपस्थिति में आज्ञापुरुष, उसकी अनुपस्थिति में धारणापुरुष और उसकी अनुपस्थिति में जीतपुरुष करता है । १. आगम व्यवहार - इसके दो प्रकार हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष' । प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं १. अवधिप्रत्यक्ष, २. मनः पर्यवप्रत्यक्ष, ३. केवलज्ञानप्रत्यक्ष | Jain Education International स्थान ५ : १. स्थानांगवृत्ति पत्र २६८ अनङ्गं वा काममपरापरपुरुषसम्पर्कतोऽतिशयेन प्रतिषेवत इत्येवंशीलाऽनङ्गप्रतिषेविणी । २. स्थानांगवृत्ति पत्र ३०१ : अकस्माद्दंडत्ति मगधदेशे गोपालबालाबलादिप्रसिद्धोऽकस्मादिति शब्द स इह प्राकृतेऽपि तथैव प्रयुक्त इति । ३. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २०१ : शिष्य ने यहां यह प्रश्न उपस्थित किया कि परोक्षज्ञानी साक्षात् रूप से श्रुत से व्यवहार करते हैं तो भला वे आगमव्यवहारी कैसे कहे जा सकते हैं ?' आचार्य ने कहा- "जैसे केवलज्ञानी अपने अप्रतिहत ज्ञानबल से पदार्थों को सर्वरूपेण जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतवल से जान लेता है। " अगमतो ववहारो मुणह जहा धीरपुरिसपत्नत्तो । पच्चवखोय परोक्खो सो वि य दुविहो मुणेयब्बो || ४. वही, भाष्यगाथा २०३ : टि०७२-८६ हिमपज्जवे य केवलनाणे य पच्चकखे । ५. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा २०६ : पारोक्खं ववहारं आगमतो सुधरा ववति । चोदसदसपुण्वधरा नवपुव्वियगंधहत्यी ६. वही, भाष्यगाथा २१० वृत्ति- कथं केनप्रकारेण साक्षात् श्रुतेन व्यवहरन्तः आगमव्यवहारिणः । ७. वही, भाष्य गाथा २११ : For Private & Personal Use Only य ॥ जह केवली वि जाणइ दव्वं च खेत्तं च कालभावं च । तह चउलक्खणमेवं सुयनाणीमेव जाणाति ॥ www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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