SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 671
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ६३० स्थान ५:टि०८६ जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानी भी समान अपराध में न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी आलोचक के राग-द्वेषात्मक अध्यवसायों को जानकर उनके अनुरूप न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है।' शिष्य ने पुन: प्रश्न किया कि प्रत्यक्षज्ञानी आलोचना करने वाले व्यक्ति के भावों को साक्षात् जान लेते हैं; किन्तु परोक्षज्ञानी ऐसा नहीं कर सकते, अतः न्यूनाधिक, प्रायश्चित्त देने का उनका आधार क्या है ? आचार्य ने कहा - 'वत्स! नालिका से गिरने वाले पानी के द्वारा समय जाना जाता है । वहां का अधिकारी व्यक्ति समय को जानकर, दूसरों को उसकी अवगति देने के लिए, समय-समय पर शंख बजाता है। शंख के शब्द को सुनकर दूसरे लोग समय का ज्ञान कर लेते हैं । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी आलोचना तथा शुद्धि करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को सुनकर यथार्थ स्थिति का ज्ञान कर लेते हैं। फिर उसके अनुसार उसे प्रायश्चित्त देते हैं। यदि वे यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति ने सम्यग् रूप से आलोचना नहीं की है, तो वे उसे अन्यत्र जाकर शोधि करने की बात कहते हैं। आगमव्यवहारी के लक्षण आचार्य के आठ प्रकार की संपदा होती है-आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति और संग्रहपरिज्ञा। इनके प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार इसके ३२ प्रकार होते हैं। [देखें ८।१५ का टिप्पण] । चार विनयप्रतिपत्तियां हैं - १. आचारविनय-आचार-विषयक विनय सिखाना। २. श्रुतविनय-सूत्र और अर्थ की वाचना देना। ३. विक्षेपणाविनय---जो धर्म से दूर हैं, उन्हें धर्म में स्थापित करना; जो स्थित हैं उन्हें प्रवजित करना; जो च्युतधर्मा हैं, उन्हें पुन: धर्मनिष्ठ बनाना और उनके लिए हित-संपादन करना। ४. दोषनिर्घातविनय-क्रोध-विनयन, दोष-विनयन तथा कांक्षा-विनयन के लिए प्रयत्न करना। जो इन ३६ गुणों में कुशल, आचार आदि आलोचनाह आठ गुणों से युक्त, अठारह वर्णनीय स्थानों का ज्ञाता, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों को जानने वाला, आलोचना के दस दोषों का विज्ञाता, व्रत षट्क और काय षट्क को जानने वाला तथा जो जातिसंपन्न आदि दस गुणों से युक्त है—वह आगमव्यवहारी होता है।" शिष्य ने पूछा ....'भंते !' वर्तमान काल में इस भरतक्षेत्र में आगमव्यवहारी का विच्छेद हो चुका है। अतः यथार्थशुद्धिदायक न रहने के कारण तथा दोषों की यथार्थशुद्धि न होने के कारण वर्तमान में चारित्र की विशुद्धि नहीं है। न कोई आज मासिक या पाक्षिक प्रायश्चित्त ही देता है और न कोई उसे ग्रहण करता है, इसलिए वर्तमान में तीर्थ केवल ज्ञान-दर्शनमय है, चारित्रमय नहीं। केवली का व्यवच्छेद होने के बाद थोड़े समय में ही चौदह पूर्वधरों का भी व्यवच्छेद हो जाता है। अतः विशुद्धि कराने वालों के अभाव में चारित्र की विशुद्धि भी नहीं रहती। दूसरी बात है कि केवली, जिन आदि अपराध के अनुसार प्रायश्चित देते थे, न्यून या अधिक नहीं। उनके अभाव में छेदसूत्रधर मनचाहा प्रायश्चित्त देते हैं, कभी थोड़ा और कभी अधिक । अतः वर्तमान में प्रायश्चित्त देने वाले के व्यवच्छेद के साथ-साथ प्रायश्चित्त का भी लोप हो गया है।' १. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा २१३ वृत्ति। २. वही, भाष्य गाथा २१६, वृत्ति जिनास्तीथंकृतः परोक्ष आगमे उपसंहारं नालीधमकेन कुर्वते, इयमव भावना नाडिकाया गलन्त्यामुदकगलनपरिमाणतो जानाति एतावत्युदके गलिते यामो दिवसस्य रावेर्वागत इति ततोऽन्यस्य परिज्ञानाय पाहं धमति । तत्र यथा सोज्यो जनः शंखस्य शब्देन श्रुतेन कालं वा यामलक्षणं जानाति तथा परोक्षागमगामिनोऽपि शोधिमालोचनां श्रुत्वा तस्य यथावस्थितं भावं जानन्ति । ज्ञात्वा च तदनुसारेण प्रायश्चित्तं ददाति । ३. वही, भाष्यगाथा ३०३ : आयारे सुय विणए विखेवण चेव होई बोधव्वे । दोसस्स निग्याए विणए चउहैस पडिवत्ती॥ ४. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ३०५-३२७ । ५. वही, भाष्य गाथा ३२८-३३४ । ६. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६३५-३३८ : एवं भणिते भणती ते बोच्छिन्ना उपसपयं इहई। तेसु य वोच्छिन्नेसु नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स ।। देतावि न दीसंती न वि करेता उपसंपयं केई। तित्थ च नाणदसण निज्जवगा चेव वोच्छिन्ना ।। चोद्दसपुव्वधराणं वोच्छेदो केवलीण बुच्छए। केसि वी आदेसो पायच्छित्तं पि योच्छिन्नं ।। जं जत्तिएण सुज्झइ पावें तस्स तहा देति पच्छित्तं । जिण चोदसपुव्वधरा तश्विरीया जहिच्छाए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy