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ठाणं (स्थान)
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स्थान ५ : टि०८६
आचार्य ने कहा- वत्स ! तू यह नहीं जानता कि प्रायश्चित्तों का मूलविधान कहां हुआ है ? वर्तमान में प्रायश्चित्त है या नहीं ?
प्रत्याख्यान प्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु में समस्त प्रायश्चित्तों का विधान है। उस आकर ग्रन्थ से प्रायश्चित्तों का निर्वहण कर निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार इन तीन सूत्रों में उनका समावेश किया गया है।' आज भी विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों को वहन करने वाले हैं । वे अपने प्रायश्चित्तों को विशेष उपायों से वहन करते हैं, अतः उनका वहन करना हमें दृग्गोचर नहीं होता । आज भी तीर्थ चारित्र सहित हैं तथा उसके निर्वापक भी हैं।
[विस्तृत वर्णन के लिए देखें व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ३५१-६०२ । ]
२. श्रुत व्यवहार -- जो बृहत्कल्प और व्यवहार को बहुत पढ़ चुका है और उनको सूत्र तथा अर्थ की दृष्टि से निपुणता से जानता है, वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है।" यहां श्रुत से भाष्यकार ने केवल इन दो सूत्रों का निर्देश किया है।
आचार्य भद्रबाहु ने कुल, गण, संघ आदि में कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का व्यवहार उपस्थित होने पर द्वादशांगी से कल्प और व्यवहार- इन दो सूत्रों का निर्वहण किया था। जो इन दोनों सूत्रों का अवगाहन कर चुका है और इनके निर्देशानुसार प्रायश्चित्तों का विधान करता है वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है।"
३. आज्ञा व्यवहार -- कोई आचार्य भक्तप्रत्याख्यान अनशन में व्यापृत हैं। वे जीवनगत दोषों की शुद्धि के लिए अन्तिम आलोचना के आकांक्षी हैं। वे सोचते हैं-'आलोचना देने वाले आचार्य दूरस्थ हैं। मैं अशक्त हो गया हूं, अतः उनके पास जा नहीं सकता तथा वे आचार्य भी यहां आने में असमर्थ हैं, अतः मुझे आज्ञा व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए।' वे शिष्य को बुलाकर उन आचार्य के पास भेजते हैं और कहलाते हैं आर्य ! मैं आपके पास शोधि करना चाहता हूं ।'
शिष्य वहां जाता है और आचार्य को यथोक्त बात कहता है। आचार्य भी वहाँ जाने में अपनी असमर्थता को लक्षित कर अपने मेधावी शिष्य को वहां भेजने की बात सोचते हैं। तब वे अपने गण में जो शिष्य आज्ञा-परिणामकर, अवग्रहण और धारणा में क्षम तथा सूत्र और अर्थ में मूढ न होने वाला होता है, उसे वहां भेजते हुए कहते हैं - 'वत्स ! तुम वहां आलोचनाआकांक्षी आचार्य के पास जाओ और उनकी आलोचना को सुनकर यहां लौट आओ।'
आचार्य द्वारा प्रेषित मुनि के पास आलोचनाकांक्षी आचार्य सरल हृदय से सारी आलोचना करते हैं । आगन्तुक मुनि आलोचक आचार्य की प्रतिसेवना और आलोचना की क्रमपरिपाटी का सम्यक् अवग्रहण और धारण कर लेता है।
१. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ३४४ :
एवं तु चोइयम्मी आयरितो भणइ न हु तुमे नायं । पच्छित्तं कहियंत कि धरती कि व वोच्छिन्नं ॥ २. वही, भाष्य गाथा ३४५:
सव्वं पिय पच्छित्तं पच्चक्खाणस्स ततिय वत्युंमि । तत्तो वि यनिच्छूढा पकष्पकप्पो य बबहारो ॥
३. वही, भाष्य गाथा ३४६, वृत्ति -
४. वही, भाष्य गाथा ६०५, ६०७ :
जो सुयमहिज्ज बहुं सुतत्थं च निउणं विजानाति । कप्पे ववहारंमि यसो उ पमाणं सुयहराणं ।। कपरस य निज्जुत्ति ववहारस्स व परमनिउणस्स । जो अत्थतो वियाण ववहारी सो अणुष्णाती ॥ ५. वही, भाष्यगाथा ६०८ वृत्ति-
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कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते यद्भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं निर्यूढं तदेवानुमज्जननिपुणतरार्थं परिभावनेन तन्मध्ये प्रविशन् व्यवहारविधि यथोक्तं सूत्रमुच्चार्य तस्यार्थं निर्दिशन् यः प्रयुक्ते स श्रुतव्यवहारी धीरपुरुषः प्रज्ञप्तः ।
६. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६१० - ६१५, ६२७ । समणस्स उत्तम सल्लद्धरण करणे अभिमुहस्स । दूरत्या जत्थ भवे छत्तीसगुणा उ आयरिया || अपरक्कमो सि जाओ गंतु जे कारणं च उप्पन्नं । अठार समन्नयरे वसणगतो इच्छिमो आणं || अपरकम्मो तवस्सी गंतुं जे सोहिका रगसमीवं । आगंतुं न वाएई सो सोहिकारोवि देसाउ || अह पट्टवेइ सीसं देसंतरगमणनट्टचेद्वागो । इच्छामज्जो काउं सोहि तुब्भं समासम्म || सोविअपरक्कमगती सीसं पेसेइ धारणाकुसलं । एयस्स दाणि पुरओ करेइ सोहि जहावत्तं ॥ अपरक्कमो य सीसं आणापरिणामगं परिच्छेज्जा । रुक्खे य वीय काए सुते वा मोहणाधारि ।। एवं परिच्छिऊण जोगं नाउण पेसवे तं तु । बच्चाहि तस्सगासं सोहि सोऊण आगच्छ || ७. वही, भाष्य गाथा ६२८ ।
अह सो गतो उ तहियं तस्स सगासम्मि सो करे साहि । दुगतिगचउविसुद्धं तिबिहे काले बिगडभावो ||
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