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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि० ८६ कितने आगमों के ज्ञाता हैं ? उनकी प्रव्रज्या---पर्याय तपस्या से भावित है या अभावित ? उनकी गृहस्थ तथा ब्रतपर्याय कितनी है ? शारीरिक बल का स्थिति क्या है ? वह क्षेत्र कैसा है ?—ये सारी बातें श्रमण उन आचार्य को पूछता है। उनके कथनानुसार तथा स्वयं के प्रत्यक्ष दर्शन से उनका अवधारण कर वह अपने प्रदेश में लौट आता है। वह अपने आचार्य के पास जाकर उसी क्रम से निवेदन करता है, जिस क्रम से उसने सभी तथ्यों का अवधारण किया था।
आचार्य अपने शिष्य के कथन को अवधानपूर्वक सुनते हैं और छेदसूत्रों [कल्प और व्यवहार में निमग्न हो जाते हैं। वे पौर्वापर्य का अनुसंधान कर, सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सम्यग् अवगति करते हैं। उसी शिष्य को बुलाकर कहते हैं'जाओ, उन आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आओ। वह शिष्य वहां जाता है और अपने आचार्य द्वारा कथित प्रायश्चित्त उन्हें सुना देता है। यह आज्ञाव्यवहार है।'
वृत्तिकार के अनुसार आज्ञाव्यवहार का अर्थ इस प्रकार है-दो गीतार्थ आचार्य भिन्न-भिन्न देशों में हों, वे कारणवश मिलने में असमर्थ हों, ऐसी स्थिति में कहीं प्रायश्चित्त आदि के विषय में एक-दूसरे का परामर्श अपेक्षित हो, तो वे अपने शिष्यों को गढपदों में प्रष्टव्य विषय को निगृहित कर उनके पास भेज देते हैं। वे गीतार्थ आचार्य भी इसी शिष्य के साथ गूढपदों में ही उत्तर प्रेषित कर देते हैं । यह आज्ञाव्यवहार है।
४. धारणाव्यवहार--किसी गीतार्थ आचार्य ने किसी समय किसी शिष्य के अपराध की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसे याद रखकर, वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त-विधि का उपयोग करना धारणाव्यवहार कहलाता है। अथवा वैयावृत्य आदि विशेष प्रवृत्ति में संलग्न तथा अशेष छेदसूत्र को धारण करने में असमर्थ साधु को कुछ विशेष-विशेष पद उद्भत कर धारणा करवाने को धारणा व्यवहार कहा जाता है।
उद्धारणा, विधारणा, संधारणा और संप्रधारणा-ये धारणा के पर्यायवाची शब्द हैं।' १. उद्घारणा–छेदसूत्रों से उद्धत अर्थपदों को निपुणता से जानना। २. विधारणा–विशिष्ट अर्थपदों को स्मृति में धारण करना। ३. संधारणा.---धारण किए हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना। ४. संप्रधारणा–पूर्ण रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना।'
१. व्यवहार, उद्देशक १० भाष्य गाथा ६५६, वृत्ति
श्रुत्वा तस्यालोचनकस्य प्रतिसेवनामालोचनाक्रमविधि च आलोचनाक्रमपरिपाटी चाबधार्य तथा तस्य यावानागमोस्ति तावन्तमागम तथा पुरुषजातं तमष्टमादिभिर्भावितमभावित वा पर्यायं गृहस्थपर्यायो यावानासीत् यावांश्च तस्य व्रतपर्यायः तावन्तमुभयं पर्याय बलं शारीरिक तस्य तथा यादृशं तत् क्षेत्रमेतत्सर्वमालोचकाचार्यकथनतः स्वतो दर्शनतश्चावधार्य
स्वदेशं गच्छति । २. वही, भाष्य गाथा ६६०:
आहारेउ सव्वं सो गंतूणं पुणो गुरुसगास ।
तेसि निवेदेइ तहा जहाणपुवि गतं सव्वं ।। ३. वही भाष्य गाथा ६६१:
सो ववहारविहष्णू अणुमज्जित्ता सुत्तोबएसेणं ।
सीसस्स देई आण तस्स इमं देहि पच्छित्तं ।। ४. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ६७३ :
एवं गंतूण तहिं जहोवएसेण देहि पच्छित्तं । आणाए एस भणितो ववहारो धीरपुरुसेहि।।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र, ३०२ :
यदगीतार्थस्य पुरतो गढार्थपदर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातिचारालोचनमितरस्यापि तथैव शुद्धिदानं
साज्ञा। ६. वही, पत्र, ३०२:
गीतार्थसं विग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधायं यदन्यस्तव तथैव तामेव प्रयुक्त सा धारणा। बयावृत्त्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारिणो अशेपानचितस्योचितप्रायश्चित्तपदानां प्रदशितानां धरणं धारणेति। ७. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ६७५ :
उद्घारणा विधारणा संधारणा संपधारणा चेव ।
नाऊण धीसुरिसा धारणववहारं तं बिति ।। ८. वही, भाष्य गाथा ६७६-६७८ :
पाबल्लेण उवेच्च व उद्धियपयधारणा उ उद्धारा। विविहेहि पगारेहि धारेयव्वं वि धारेउ ।। सं एगी भावस्सी द्दियकरणा ताणि एक्कभावेण । धारेयत्थपयाणि उ तम्हा संघारणा होई। जम्हा संपहारेउं ववहारं पउंजति । तम्हा कारणा तेण नायव्वा संपहारणा ।।
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