________________
ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि०८६
___जो मुनि प्रवचनयशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, सुश्रुत, बहुश्रुत, विनय और औचित्य से युक्त वाणी वाला होता है, वह यदि प्रमादवश मूलगुणों या उत्तरगुणों में स्खलना कर देता है, तब पूर्वोक्त तीन व्यवहारों के अभाव में भी, आचार्य छेदसूत्रों से अर्थपदों को धारण कर उसे यथायोग्य प्रायश्चित्त देते हैं। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से छेदसूत्र के अर्थ का सम्यग् पर्यालोचन कर, प्राग्तन, धीर, दान्त और प्रलीन मुनियों द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान करते हैं। यह धारणाव्यवहार कहलाता है।'
यह भी माना जाता है कि किसी ने किसी को आलोचनाशुद्धि करते हुए देखा। उसने यह अवधारण कर लिया कि इस प्रकार के अपराध के लिए यह शोधि होती है। परिस्थिति उत्पन्न होने पर वह उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देता है तो वह धारणाव्यवहार कहलाता है।
कोई शिष्य आचार्य की वैयावृत्य में संलग्न है या गण में प्रधान शिष्य है या यात्रा के अवसर पर आचार्य के साथ रहता है, वह छेदसूत्रों के परिपूर्ण अर्थ को धारण करने में असमर्थ होता है। तब आचार्य उस पर अनुग्रह कर छेदसूत्रों के कई अर्थ-पद उसे धारण करवाते हैं। वह छेदसूत्रों का अंशत: धारक होता है। वह भी धारणाव्यवहार का संचालन कर सकता है।
५. जीतव्यवहार-किसी समय किसी अपराध के लिए आचार्यों ने एक प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया। दूसरे समय में देश, काल, धृति, संहनन, बल आदि देखकर उसी अपराध के लिए जो दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया जाता है, उसे जीतव्यवहार कहते हैं।
किसी आचार्य के गच्छ में किसी कारणवश कोई सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त प्रवर्तित हुआ और वह बहुतों द्वारा, अनेक बार, अनुवतित हुआ। उस प्रायश्चित्त-विधि को 'जीत' कहा जाता है।
शिष्य ने यह प्रश्न उपस्थित किया कि चौदहपूर्वी के उच्छेद के साथ-साथ आगम, श्रुत, आज्ञा और धारणा--ये चारों व्यवहार भी व्यवच्छिन्न हो जाते हैं। क्या यह सही है ?"
आचार्य ने कहा- 'नहीं, यह सही नहीं है। केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी और नौपूर्वी --- ये सब आगमव्यवहारी होते हैं, कल्प और व्यवहार सूत्रधर श्रुतव्यवहारी होते हैं; जो छेदसूत्र के अर्थधर होते हैं, वे आज्ञा
व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६८०-६८६ : पवयण जसंसि पुरिसे अणुग्गह विसारए तवस्सिमि। मुस्सुयबहुस्सुयंमि य विवक्कपरियागसुद्धम्मि ।। एएमु धीरपुरिसा पुरिसजाएसु किंचि खलिएसु । रहिएवि धारयंता जहारिहं देति पच्छित्तं ।। रहिए नाम असन्ने आइल्लम्मि ववहारतियगंमि । ताहेवि धारइत्ता बीमसेऊण जं भणियं ।। पुरिसस्स अइयारं वियारइत्ताण जस्स जं जोग । तं देंति उ पच्छित्तं जेणं देती उ तं सुणए । जो धारितो सुत्तत्यो अणुओगविहीए धीरपुरिसेहि । आलीणपलीणेहि जयणाजुत्तेहिं दन्तेहि ।। अल्लीणो गाणादिसु पदे-पदे लीआ उ होति पलीणा । कोहादी वा पलयं जेसि गया ते पलीणा उ॥ जयणाजुत्तो पयत्तवा दतो जो उवरतो उ पावेहि । अहवा दंतो इंदियदमेण नोइंदिएणं च ।।
२. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ६८७-६८६:
अहवा जेणण्णइया दिदा सोही परस्स कीरति । तारिसयं चेव पूणो उपण्णं कारणं तस्स ।। सो तंमि चेव दवे खेत्ते काले य कारिणे पूरिसो। तारिसयं अकरेंतो न ह सो आराहतो होइ।। सो तंपि चेव दवे खेत काले य कारणे पूरिसे।
तारिसयं चिय भूया, कुवं आराहगो होई ।। ३. वही, भाष्य गाथा ६६०, ६६१:
वेयावच्चकरो वा सीसो वा देसहिटगो वावि । दुम्मेहत्ता न तरइ आराहेउ बहूं जो उ॥ तस्स उ उद्धरिऊण अत्थपयाई देति आयरियो।
जेहि उ करेइ कज्ज आहारेन्तो उ सो देसं । ४. स्थानांगवत्ति, पत्र ३०२ : द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिषेवान
वृत्या संहननधृत्यादिपरिहाणिमपेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदानं यो वा यन्त्र गच्छे सूत्रातिरिक्त कारणत. प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवत्तितो
बहुभिरन्यश्चानुबत्तितस्तज्जीतमिति । ५. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ६६६ :
ववहारे चउक्कंपि य चोदसपुवंमि वोच्छिन्नं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org,