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________________ ठाणं (स्थान) स्थान ५ : टि०८७ और धारणा से व्यवहार करते हैं। आज भी छेदसूत्रों के सूत्र और अर्थ को धारण करने वाले हैं, अत: व्यवहारचतुष्क का व्यवच्छेद चौदहपुर्वी के साथ मानना यक्तिसंगत नहीं है।' जीतव्यवहार दो प्रकार का होता है—सावध जीतव्यवहार और निरवद्य जीतव्यवहार। वस्तुत: निरवद्य जीत व्यवहार से ही व्यवहरण हो सकता है सावध से नहीं। परन्तु कहीं-कहीं सावध जीत व्यवहार का आश्रय भी लिया जाता है। जैसे-- कोई मुनि ऐसा अपराध कर डालता है कि जिससे समूचे श्रमण-संघ की अवहेलना होती है और लोगों में तिरस्कार उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में शासन और लोगों में उस अपराध की विशुद्धि की अवगति कराने के लिए अपराधी मुनि को गधे पर चढ़ाकर सारे नगर में बुमाते हैं, पेट के बल रेंगते हुए नगर में जाने को कहते हैं, शरीर पर राख लगाकर लोगों के बीच जाने को प्रेरित करते हैं, कारागृह में प्रविष्ट करते हैं ये सब सावध जीतव्यवहार के उदाहरण हैं। दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का व्यवहरण करना निरवद्य जीतव्यवहार है। अपवाद रूप में सावध जीतव्यवहार का भी आलम्बन लिया जाता है। जो श्रमण बार-बार दोष करता है, बहुदोषी है, सर्वथा निर्दय है तथा प्रवचन-निरपेक्ष है, ऐसे व्यक्ति के लिए सावध जीतव्यवहार उचित होता है।' जो श्रमण वैराग्यवान्, प्रियधर्मा, अप्रमत्त और पापभीरु है, उसके कहीं स्खलित हो जाने पर निरवद्य जीतव्यवहार उचित होता है। जो जीतव्यवहार पार्श्वस्थ, प्रमत्तसंयत मुनियों द्वारा आचीर्ण है, भले फिर वह अनेक व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि करने वाला नहीं होता। जो जीतव्यवहार संवेगपरायण दान्त मुनि द्वारा आचीर्ण है, भले फिर वह एक ही मुनि द्वारा आचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि करने वाला होता है। व्यवहार साधू-संघ की व्यवस्था का आधार-बिन्दु रहा है। इसके माध्यम से संघ को निरन्तर जागरूक और विशुद्ध रखने का प्रयत्न किया जा रहा है। इसलिए चारित्र की आराधना में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ८७. (सू० १३१) देखें.-१०१८४ का टिप्पण।। ४. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ७१७ : उसष्णबहूदोसे निबंधसे पवयणे य निरवेक्खो। एयारिसंमि पुरिसे दिज्जइ सावज्जं जीयपि ।। ५. वही, भाष्य गाया २१८: संधिग्गे पियधम्मे अपमत्ते य बज्ज भीरुम्मि कम्हिइयमाइ खलिए देवमसावज्ज जीयं तु । १. व्यवहार, उद्देशक १२, भाष्य गाथा ७०१-७०३ : केवलमणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा । चोद्दसदसनवपुब्बी आगमववहारिणो धीरा ।। सुत्तेण ववहरते कप्पववहारं धारिणो धीरा। अत्यधर ववहारते आणाए धारणा ए य ।। ववहारच उक्कस्स, चोहसविम्मि छेदो । भणियं तं ते मिच्छा, जम्हा सुतं अत्थो य वरए य ।। २. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्य गाथा ७१५: जंजीतं सावजं न तेण जीएण होइ ववहारो। जं जीयमसावज्ज तेण उ जीएण ववहारो।। ३. वही, भाष्य गाथा ३१६, वृत्ति छारहड्डिहड्डमालापोट्टेण य रिंगणं तु सावज्ज । दसविह पायच्छित होइ असावज्जं जीयं तु ॥ यत् प्रवचने लोके चापराधविशुद्धये समाचरितं क्षारावगण्डनं हडो गुप्तिगृहप्रवेशनं खरमारोपणं पोट्टण उदरेण रंगणं तु शब्दत्वात् खरारूढं कृत्वा ग्राने सर्वतः पर्यटनमित्येवमादि सावा जीत, यत्तु दशविधमालोचनादिकं प्रायश्चित्तं तदसावद्य' जीत अपवादत: कदाचित्सावद्यमपि जीतं दद्यात् । ६. वही, भाष्य गाथा ७२०: जं जीयमसोहिकरं पासत्थप मत्तसंजयाईण्णं । जइवि महाजणाइन्न न तेन जीएण ववहारो।। ७. वही, भाष्यगाथा ७२१ : जं जीयं सोहिकर संवेगपरायणेन देतेण। एगेण वि आइन्नं तेणं उ जीएण ववहारो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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