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स्थान ५ : टि०८८-80
ठाणं (स्थान) ८८. (सू० १३२)
देखें-१०।८५ का टिप्पण।
८६. (सू० १३३)
वृत्तिकार ने बोधि का अर्थ जन-धर्म किया है। यह एक अर्थ है। बोधि के दूसरे-दूसरे अर्थ भी हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र प्राप्ति की चिंता आदि-आदि।
प्रस्तुत सूत्र में बोधि-दुर्लभता के पांच स्थान माने हैं। (१) अर्हत् का अवर्ण बोलना
'अर्हत् कोई है ही नहीं। वे वस्तुओं के उपभोग के कट परिणामों को जानते हए भी उनका उपयोग क्यों करते हैं ? वे समवसरण आदि का आडम्बर क्यों रचते हैं ? —ऐसी बातें करना अर्हत् का अवर्णवाद है।
(उनके अवश्यवेद्य सातावेदनीयकर्म तथा तीर्थकर नामकर्म के बेदन से निर्जरा होती है। वे वीतराग होते हैं। अत: समवसरण आदि में उनकी प्रतिवद्धता नहीं होती।)
(२) अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म का अवर्ण बोलनाश्रुतधर्म का अवर्णवाद–प्राकृत साधारण लोगों की भाषा है। शास्त्र प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं आदि-आदि । चारित्रधर्म का अवर्णवाद—चारित्न से क्या प्रयोजन, दान ही श्रेय है--ऐसा कहना धर्म का अवर्णवाद है। (३) आचार्य, उपाध्याय का अवर्ण बोलना
ये बालक हैं, मन्द हैं आदि-आदि। (४) चातुर्वर्ण संघ का अवर्ण बोलनायहाँ वर्ण का अर्थ प्रकार है । चार प्रकार का संघ-साधु, साध्वी, श्रावक और श्रादिका।
यह क्या संघ है जो अपने समवायबल से पशु-संघ की भाँति अमार्ग को भी मार्ग की तरह मान रहा है। यह ठीक नहीं है।
(५) तप और ब्रह्मचर्य के परिपाक से देवत्व को प्राप्त देवों का अवर्ण बोलना---
जैसे---देवता नहीं हैं क्योंकि वे कभी उपलब्ध नहीं होते। यदि वे हैं तो भी कामासक्त होने के कारण उनमें कोई विशेषता नहीं है।
६०. प्रतिसंलीन (सू० १३५)
प्रतिसंलीनता बाह्य तप का छठा प्रकार है। इसका अर्थ है--विषयों से इन्द्रियों का संहृत कर अपने-अपने गोलक में स्थापित करना तथा प्राप्त विषयों में राग-द्वेष का निग्रह करना।
उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थ मूत्र प्रतिसलीनता के स्थान पर विविक्तशयनासन, विविक्तशय्या' आदि भी मिलते है। प्रतिसंलीनता के चार प्रकार हैं
(१) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता। (२) कषाय प्रतिसंलीनता। (३) योग प्रतिसंलीनता। (४) विविक्त शयनासन सेवन ।
प्रस्तुत सूत्र में इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पाँच प्रकारों का उल्लेख है। विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १६२, १६३ ।
१. स्थानांगवत्ति, पत्र ३०५ : बोधि :-जिनधर्मः। २. देखें-३।१७६ का टिप्पण। ३. स्थानांगवृत्ति, पव ३०५, ३०६ ।
४. उत्तराध्ययन ३०१२८तत्त्वार्थ सूत्र ६१६ । ५. औषपातिक, सूत्र १६॥
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