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ठाणं (स्थान)
स्थान १० : टि० ११
१०. बस्ती के अन्दर मनुष्य आदि का उद्भिन्न कलेवर हो तो सौ हाथ तक अस्वाध्यायिक रहता है और अनुद्भिन्न होने पर भी, गंध आदि के कारण सौ हाथ तक अस्वाध्यायिक रहता है। जब उसका परिष्ठापन हो जाता है तब वह स्थान शुद्ध हो जाता है।
व्यवहार सूत्र [उद्देशक ७] में बतलाया गया है कि मुनि अस्वाध्यायिक वातावरण में स्वाध्याय न करे, किन्तु स्वाध्यायिक वातावरण में ही स्वाध्याय करे । भाष्यकार ने अस्वाध्यायिक के दो प्रकार बतलाए हैं—आत्म-समुत्थित और पर-समुत्थित।'
अपने शरीर में व्रण आदि से रक्त झरना—यह आत्म-समुत्थित अस्वाध्यायिक है। परसमुत्थ अस्वाध्यायिक पांच प्रकार का होता है१. संयमघाती २. औत्पातिक ३. देवप्रयुक्त ४. व्युद्ग्रह ५. शरीर संबंधी। १. संयमघाती—इसके तीन भेद हैं
१. महिका २. सचित्त रज ३. वर्षा – इसके तीन प्रकार हैं० बुबुद्-जिस वर्षा से पानी में बुलबुले उठते हों। • बुबुद् सहित वर्षा।
० फुआरवाली वर्षा।
निशीथ चूर्णि के अनुसार महिका सूक्ष्म होने के कारण गिरने के समय ही सर्वत्र व्याप्त होकर सब कुछ अप्काय से भावित कर देती है। इसलिए महिका-पात के समय ही स्वाध्याय, गमनागमन आदि चेष्टाएं वर्जनीय हैं।'
सचित्त रज यदि निरंतर गिरता है तो वह तीन दिन के पश्चात् सब कुछ पृथ्वीकाय से भावित कर देता है अतः तीन दिन के पश्चात् जितने समय तक सचित्त रजःपात हो उतने समय तक स्वाध्याय वजित है।'
वर्षा के तीनों प्रकार क्रमश: तीन, पांच और सात दिनों के पश्चात् सब कुछ अकायभावित कर देते हैं । अतः तीन, पांच और सात दिनों के पश्चात् जितने दिनों तक वर्षापात हो उतने समय तक स्वाध्याय वजित है।'
इनका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार दृष्टियों से वर्जन किया गया है। द्रव्य दृष्टि से--महिका, सचित्त रज और वर्षा—ये वर्जनीय हैं। क्षेत्र दृष्टि से—जिस क्षेत्र में ये गिरते हैं, वह क्षेत्र वर्जनीय है। कालदृष्टि से-जितने समय तक गिरते हैं, उतने समय तक स्वाध्याय आदि वर्जनीय हैं। भाव दृष्टि से-गमनागमन, स्वाध्याय, प्रतिलेखन आदि वर्जनीय हैं।' २. औत्पातिक-इसके पांच प्रकार हैं
(१) पांशुवृष्टि (२) मांस वृष्टि (३) रुधिरवृष्टि (४) केशवृष्टि (५) शिलावृष्टि ।
मांस और रुधिर वृष्टि के समय एक अहोरात्र और शेष तीनों में जब तक उनकी वृष्टि होती हो तब तक सूत्र का स्वाध्याय वर्जित है।
३. देवप्रयुक्त
(१) गन्धर्वनगर-चक्रवर्ती आदि के नगर में उत्पात होने की संभावना होने पर उस उत्पात का संकेत देने के लिए देव उसी नगर पर एक दूसरे नगर का निर्माण करते हैं और वह स्पष्ट दिखाई देता रहता है। (२) दिग्दाह (३) विद्युत्
(४) उल्का (५) गजित (६) यूपक (७) चन्द्रग्रहण (८) सूर्यग्रहण (६) निर्घात (१०) गुञ्जित। इनमें गन्धर्व नगर निश्चित ही देवकृत होता है, शेष दिग्दाह आदि देवकृत भी होते हैं और स्वाभाविक भी। देवकृत
१. व्यवहार भाष्य ७१२६८ : असज्झाइयं च दुविहं आयसमुत्थं च
परसमुत्वं च ।। २. निशीयभाष्य गाथा ६०८२, ६०८३ चूर्णि
३, ४. वही, गाथा ६०८२, ६०८३ । ५. निशीथभाष्य गाथा ६०८३ । ६. व्यवहारभाष्य ७।२८५ ।
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