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ठाणं (स्थान)
स्थान १०:टि०६-१०
आचार्य का अर्थ है-स्वयं आचार का पालन करना तथा दूसरों से उसका पालन करवाना। इस दृष्टि से तीर्थंकर स्वयं आचार्य होते हैं । स्कन्दक ने गौतम गणधर से पूछा-'आपको किसने यह अनुशासन दिया?'
गौतम ने कहा--'धर्माचार्य ने।' यहाँ आचार्य का अभिप्राय तीर्थकर से है।'
पाँचवें स्थान के दो सूत्रों ४४-४५] में अग्लान भाव से दस प्रकार के वैयावत्य करने वाला, महान कर्मक्षय करने वाला और आत्यन्तिक पर्यवसान वाला होता है-ऐसा कहा है।
६. (सू०१८)
परिणाम का अर्थ है-एक पर्याय से दूसरे पर्याय में जाना। इसमें सर्वथा विनाश और सर्वथा अवस्थान-ध्रौव्य नहीं होता। यह कथन द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से है। पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से परिणम का अर्थ है-सत् पर्याय का विनाश और असत् पर्याय का उत्पाद ।
प्रस्तुत सूत्र में जीव के दस परिणाम बतलाए हैं। वे जीव के परिणमनशील अध्यवसाय या अवस्थाएं हैं। इन दस परिणामों के अवान्तर भेद चालीस हैं-- १. गति परिणाम-चार गतियां-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । २. इंद्रिय परिणाम-पांच इन्द्रियाँ-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षुः और श्रोत्र। ३. कषाय परिणाम–चार कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ । ४. लेश्या परिणाम-छह लेश्या-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल । ५. योग परिणाम-तीन योग-मन, वचन और काय। ६. उपयोग परिणाम-दो उपयोग--साकार और अनाकार। ७. ज्ञान परिणाम–पाँच ज्ञान-मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यव और केवल । ८. दर्शन परिणाम–तीन दर्शन--चक्षुःदर्शन, अचक्षुःदर्शन और अवधिदर्शन। ६. चारित्र परिणाम-पांच चारित्र-सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात । १०. वेद परिणाम-तीन वेद-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद।
१०. (सू० १९)
पुदगलों के परिणाम (अव्यवस्थान्तर) को अजीव परिणाम कहा जाता है। वह दस प्रकार का है
१. बंधन परिणाम पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध स्निग्धता और रूक्षता के कारण होता है । (देखें-तत्त्वार्थ सूत्र ५।३२-३६) बंधन तीन प्रकार का होता है--
१. प्रयोग बंध--जीव के प्रयोग से होने वाला बंध। २. विस्रसाबंध-स्वभाव से होने वाला बंध ।
३. मिश्र बंध-जीव के प्रयत्न और स्वभाव-दोनों से होने वाला बंध। २. गति परिणाम--पुद्गलों की गति । यह दो प्रकार का है
१. स्पृशद्गतिपरिणाम—प्रयत्न विशेष से क्षेत्र-प्रदेशों का स्पर्श करते हुए गति का होना। २. अस्पृशद्गतिपरिणाम-क्षेत्रप्रदेशों का स्पर्श न करते हुए गति का होना।
१. व्यवहारभाष्य १०१२३-१३३॥ २. स्थानांगवृत्ति, पन्न ४५०, ४५१ ।
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