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________________ ठाणं (स्थान) ९६४ स्थान १० : टि० ११ जैसे—बहुत ऊंचे मकान से पत्थर गिराने पर उसके गिरने का कालभेद तथा अनवरत गति करने वाले पदार्थों का देशान्तर प्राप्ति का कालभेद प्राप्त होता है-यह अस्पृशद्गति परिणाम है। विकल्प से इसके दो भेद और होते हैंदीर्घगति परिणाम और हृस्वगति परिणाम । ३. संस्थान परिणाम–संस्थान का अर्थ है-आकृति । उसके दो प्रकार हैं १. इत्थंस्थ-नियत आकार वाला। इसके पांच प्रकार हैं-परिमंडल, वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण और आयात । २. अनित्थंस्थ-अनियत आकार वाला। ४. भेद परिणाम-यह पाँच प्रकार का है० खंडभेद-मिट्टी की दरार। • प्रतरभेद—जैसे—अभ्रपटल के प्रतर। • अनुतटभेद-बांस या ईक्षु को छीलना। ० चूर्णभेद-चूर्ण, जैसे-आटा। ० उत्करिकाभेद-काठ आदि का उत्किरण । तत्त्वार्थवार्तिक में इसके छह भेद निर्दिष्ट हैं। उनमें इन पांच के अतिरिक्त एक चूणिका को और माना है। चूर्ण और चूणिका का अर्थ इस प्रकार दिया है १. चूर्ण-जी, गेहूं आदि के सत्तू में होनेवाली कणिका। २. चूर्णिका-उड़द, मूंग आदि का आटा। ५. वर्णपरिणाम-इसके पांच प्रकार हैं-कृष्ण, पीत, नील, रक्त और श्वेत। ६. गंध परिणाम--इसके दो प्रकार हैं—सुगंध और दुर्गन्ध । ७. रस परिणाम—इसके पांच प्रकार हैं-तिक्त, कट, कसैला, आम्ल और मधुर। ८. स्पर्श परिणाम—इसके आठ प्रकार हैं-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । ६. अगुरुलघुपरिणाम—अत्यन्त सूक्ष्म परिणाम । भाषा, मन और कर्म वर्गणा के पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म परिणाम वाले होते हैं । यह निश्चय नय की अपेक्षा से है । व्यवहार नय की अपेक्षा से इसके चार भेद होते हैं १. गुरुक-पत्थर आदि । इसका स्वभाव है नीचा जाना। २. लघुक-धूम आदि। इसका स्वभाव है ऊंचा जाना। ३. गुरुलघुक.....वायु आदि । इसका स्वभाव है-तिर्यग् गति करना। ४. अगुरुलघुक-जो न गुरु होता है और न लघु, जैसे-भाषा आदि की वर्गणाएं। १०. शब्द परिणाम--देखें स्थानांग २।२। इनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये चार पुद्गल के गुण हैं और शेष परिणाम उनके कार्य हैं। ११. (सू० २०, २१) जैन परम्परा में अस्वाध्यायिक वातावरण में स्वाध्याय करने का निषेध है। आवश्यक सूत्र (४) के अनुसार अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करना ज्ञान का अतिचार है। इस निषेध के पीछे अनेक कारण रहे हैं। उनका आकलन व्यवहारभाष्य, निशीथभाष्य तथा स्थानांगवृत्ति आदि अनेक ग्रन्थों में प्राप्त है । निषेध के कुछेक कारण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं १. श्रुतज्ञान की अभक्ति । २. लोकविरुद्ध व्यवहार । ३. प्रमत्तछलना। ४. विद्या साधन का वैगुण्य । ५. श्रतज्ञान के आचार की विराधना । ६. अहिंसा । ७. उड्डाह । ८. अप्रीति । १. तत्त्वार्थवार्तिक ५।२४, पृष्ठ ४८६ : चूर्णो यवगोधूमादीनां सक्तुकणिकादिः ।"""चूणिका माषमुद्गादीनाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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