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________________ ठाणं (स्थान) स्थान १०: टि० ११ प्रथम पाँच कारण उक्त दोनों भाष्यों में निर्दिष्ट हैं और शेष तीन कारण भाष्य तथा फलित रूप में प्राप्त होते हैं। ग्राममहत्तर की मृत्यु के समय स्वाध्याय का वर्जन न करने पर लोक गर्दा करते थे 'हमारे गांव का मुखिया चल बसा है और ये साधु पढ़ने में लगे हुए हैं। इन्हें उसका कोई दुःख ही नही है।' इस लोक गहरे से बचने के लिए ऐसे प्रसंगों पर स्वाध्याय का वर्जन किया जाता था। इसी प्रकार युद्ध आदि के समय भी स्वाध्याय का वर्जन न करने पर लोक उड्डाह (अपवाद) करते थे----'हमारे शिर पर आपदाओं के पहाड़ टूट रहे हैं, पर ये साधु अपनी पढ़ाई में लीन हैं।' इस उड्डाह से बचने के लिए भी स्वाध्याय का वर्जन किया जाता था। ___ भाष्य-निर्दिष्ट स्वाध्याय-बर्जन के कारणों का अध्ययन करने पर सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि स्वाध्यायवर्जन के बहुत सारे कारण उस समय की प्रचलित लौकिक और अन्य सांप्रदायिक मान्यताओं पर आधृत हैं . व्यवहार पालन की दृष्टि में इन्हें स्वीकार किया गया है। इनमें सामयिक स्थिति की झलक अधिक है। कुछ कारण ऐसे भी हैं जिनका संबंध लोक व्यवहार से नहीं है, जैसे- कुहासा गिरने पर स्वाध्याय का वर्जन अहिंसा की दृष्टि से किया गया है। कुहासा गिरने के समय सारा वातावरण अप्काय के जीवों से आक्रान्त हो जाता है। उस समय मुनि को किसी प्रकार की कायिकी और वानिकी चेष्टा नहीं करनी चाहिए। व्यन्तर आदि देवताओं के द्वारा या निर्धात आदि के पीछे भी व्यन्तर आदि देवताओं के हाथ होने की कल्पना की गई है। वे व्यन्त र साधु को ठग सकते हैं, इस संभावना से भी वैसे प्रसंगों में स्वाध्याय का वर्जन किया गया है। अतीत की बहुत सारी मान्यताएं, गर्दा के मानदंड और अप्रीति के निमित्त आज व्यवहृत नहीं है। इसलिए अस्वाध्यायिक के प्रकरण का जितना ऐतिहासिक मूल्य है उतना व्यावहारिक मूल्य नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में इतिहास के अनेक तथ्य उद्घाटित होते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखकर इसे विस्तार से प्रस्तुत किया गया है । प्रस्तुत स्थान के बीसवें सूत्र में दस प्रकार के आंतरिक्ष अस्वाध्यायिक बतलाए गए हैं। उनका विवरण इस प्रकार १. उल्कापात - पुच्छल तारे आदि का टूटना । उल्कापात के समय आकाश में रेखा दीख पड़ती है। निशीथ भाष्य में निर्दिष्ट है कि कुछ उल्काएँ रेखा खींचती हुई गिरती हैं और कुछ केवल उद्योत करती हुई गिरती हैं। २. दिग्दाह-पुद्गलों की विचित्र परिणति के कारण कभी-कभी दिशाएं प्रज्वलित जैसी हो उठती हैं। उस समय का प्रकाश छिन्नमूल होता है-भूमि पर स्थित नहीं दिखाई देता। किन्तु आकाश में स्थित दीखता है। ३. गर्जन-बादलों का गर्जन । व्यवहारभाष्य में इसके स्थान पर गुंजित शब्द है। उसका अर्थ है-गुंजमान महाध्वनि।' १. (क) व्यवहारभाष्य ७।३६६ : मुयनाणमि अभत्ती लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य। विज्जासाहुणवेगुण धम्मयाए य मा कुणसु ।। (ख) निशीथभाष्य गाथा ६१७१ : मुयनाणम्मि अभत्ती लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य। विज्जासाहण वइगुण्ण धम्मयाए य मा कुणसु ।। २. निशीथभाष्य गाथा ६०६७ : महतरपगते बहुपक्खिते, व सत्तघरअंतरमते वा। णिदुक्ख त्ति य गरहा, ण करेंति सणीयगंवा वि ।। ३. निशीथभाष्यगाथा ६०६५: सेणाहिव भोइ मयर, पुंसित्थीणं च मल्लजुद्धे वा। लोट्ठादि-भंडणे वा, गुज्झमुड्डाहमचियतं !। चूर्णि-जणोभणेज्ज,--अम्हे आवइपत्ताण इमे सज्झायं करेंतित्ति अचियत्तं हवेज्ज: ४. व्यवहारभाष्य ७२७६ : पढममि सव्वचिठ्ठा सज्झातो वा निवारतो नियमा। सेसेसु असज्जाती चेट्ठा न निवारिया अण्णा ।। ५. निशीथभाष्य गाथा ६०८६ : उक्का सरेहा पगासजुता वा । ६. व्यवहारभाष्य ७।२८८ : निग्धायगुंजिते । वृत्ति-गुञ्जमानो महाध्वनिगुं. जितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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