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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि०८
५. ग्लान का वैयावृत्त्य-जिसका शरीर रोग आदि से आक्रान्त है, वह ग्लान है। उसका वैयावृत्त्य करना। ६. गण का वैयावृत्त्य--स्थविर मुनियों की संगति को गण कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना।
७. कूल का वैयावृत्त्य -दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य-परम्परा को कुल कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना।
८. संघ का वैयावृत्त्य-श्रमण-समूह को संघ कहा जाता है । उसका वैयावृत्त्य करना। ६. साधु का वैयावृत्त्य-चिरकाल से प्रवजित साधक को साधु कहा जाता है । उसका वैयावृत्त्य करना। १०. मनोज्ञ का वैयावृत्त्य—मनोज्ञ के तीन अर्थ हैं
१. अभिरूप-जो अपने ही संघ के साधु के वेश में है। २. जो संसार में अपनी विद्वत्ता, वाक्-कौशल और महाकुलीनता के कारण प्रसिद्ध है।
३. संस्कारी असंयत सम्यक-दृष्टि।
स्थानांग में उक्त सार्मिक और स्थविर 'वैयावृत्त्य' का इसमें उल्लेख नहीं है। उनके स्थान पर साधु और मनोज्ञ ये दो प्रकार निर्दिष्ट हैं । स्थानांग वृत्ति में सार्मिक का अर्थ साधु किया गया है।'
वैयावृत्त्य करने के चार कारण बतलाए गए हैं१. समाधि पैदा करना। २. विचिकित्सा दूर करना, ग्लानि का निवारण करना । ३. प्रवचन वात्सल्य प्रकट करना। ४. सनाथता-निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देना।' व्यवहार भाष्य में प्रत्येक वैयावृत्त्य स्थान के तेरह-तेरह द्वार उल्लिखित हैं, वे ये हैं१. भोजन लाकर देना। २. पानी लाकर देना। ३. संस्तारक देना। ४. आसन देना। ५. क्षेत्र और उपधि का प्रतिलेखन करना। ६. पाद प्रमार्जन करना अथवा औषधि पिलाना। ७. आंख का रोग उत्पन्न होने पर औषधि लाकर देना। ८. मार्ग में विहार करते समय उनका भार लेना तथा मर्दन आदि करना। ६. राजा आदि के क्रुद्ध होने पर उत्पन्न क्लेश से निस्तार करना । १०. शरीर को हानि पहुंचाने वाले तथा उपधि को चुरानेवालों से संरक्षण करना । ११. बाहर से आने पर दंड (यष्टि) ग्रहण कर रखना। १२. ग्लान होने पर उचित व्यवस्था करना। १३. उच्चार पात्र, प्रश्रवण पान और श्लेष्म पात्र की व्यवस्था करना।
प्रस्तुत प्रसंग में तीर्थंकर के वैयावृत्त्य का कोई उल्लेख नहीं है। शिष्य ने आचार्य से पूछा-'क्या तीर्थंकर का वैयावृत्त्य नहीं करना चाहिए? क्या वैसा करने से निर्जरा नहीं होती? आचार्य ने कहा-'दस व्यक्तियों के मध्य में आचार्य का ग्रहण किया गया है। इसमें तीर्थंकर समाविष्ट हो जाते है। यहां आचार्य शब्द केवल निर्देशन के लिए है।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४६ : समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरन्तीति
सार्मिकाः साधवः।
२. तत्त्वार्थराजवातिक (दूसरा भाग) पुष्ठ ६२४ : समाध्याध्यान
विचिकित्साभावप्रवचनवात्सल्याद्यभिव्यक्त्यर्थम् ।।
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