SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 728
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ६८७ स्थान : ६ टि०२ ६. विसर्जित करने के लिए मौन भाव से जाना निर्हरण के लिए जानेवाले को किसी से बातचीत नहीं करनी चाहिए। इधर-उधर दृष्टि-विक्षेप भी नहीं करना चाहिए। कालगत मुनि की निर्हरण क्रिया की विधि का विस्तृत उल्लेख बृहत्कल्पभाष्य', व्यवहारभाष्य और आवश्यकचूणि' में मिलता है । बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार उसका विवरण इस प्रकार है-- मुनि के शव को ले जाने के लिए वहनकाष्ठ और महास्थंडिल (जहां मृतक को परिष्ठापित किया जाता है) का निरीक्षण करना चाहिए । तीन स्थंडिलों का निरीक्षण आवश्यक होता है-- १. गांव के नजदीक, २. गांव के बीच में, ३. गांव से दूर। इन तीनों की अपेक्षा इसलिए है कि एक के अव्यवहार्य होने पर दूसरा स्थंडिल काम में आ सके। संभव है, देखे हुए स्थंडिल को खेत के रूप में परिवर्तित कर दिया गया हो, अथवा उस क्षेत्र में पानी का जमाव हो गया हो, अथवा वहां हरियाली हो गई हो, अथवा वहां त्रस प्राणियों का उद्भव हो गया हो अथवा वहां नया गाँव बसा दिया हो अथवा वहां किसी सार्थ ने अपना पड़ाव डाल दिया हो—इन सब संभावनाओं के कारण तीन स्थंडिल अपेक्षित होते हैं। एक के अवरुद्ध होने पर दूसरे और दूसरे के अवरुद्ध होने पर तीसरे स्थंडिल को काम में लेना चाहिए। मृतक को ढाई हाथ लम्बे सफेद और सुगंधित वस्त्र से ढंकना चाहिए। उसके नीचे भी वैसा ही एक वस्त्र बिछाना चाहिए। तत्पश्चात् उसको उन वस्त्रों सहित एक डोरी से बांधकर, उस डोरी को ढंकने के लिए तीसरा अति उज्ज्वल वस्त्र ऊपर डाल देना चाहिए। सामान्यतः तीन वस्त्रों का उपयोग अवश्य होना चाहिए और आवश्यकतावश अधिक वस्त्रों का भी उपयोग किया जा सकता है। शव को मलिन वस्त्रों से ढंकने से प्रवचन की अवज्ञा होती है। लोक कहने लगते हैं-'अरे! ये साधु मरने पर भी शोभा प्राप्त कहीं करते।' मलिन वस्त्रों के कारण दो दोष उत्पन्न होते हैं—एक तो जो व्यक्ति उस सम्प्रदाय में सम्यक्त्व ग्रहण करना चाहते हैं, उनका मन उससे हट जाता है और जो व्यक्ति उस संघ में प्रवजित होना चाहते हैं, वे भी उससे दूर हो जाते हैं। अतः शव को अत्यन्त शुक्ल और सुन्दर वस्त्रो से ढंकना चाहिए। जब भी साधु कालगत हुआ हो उसे उसी समय निकालना चाहिए, फिर चाहे रात हो या दिन । लेकिन रात्रि में विशेष हिम गिरता हो, चोरों या हिंसक जानवरों का भय हो, नगर के द्वार बन्द हों, मृतक महाजनों द्वारा ज्ञात हो अथवा किसी ग्राम की ऐसी व्यवस्था हो कि वहां रात्रि में शव को बाहर नहीं ले जाया जाता, मृतक के संबंधियों ने पहले से ऐसा कहा हो कि हमको पूछे बिना मृतक को न ले जाया जाए अथवा मृतक मुनि प्रसिद्ध आचार्य अथवा लम्बे समय तक अनशन का पालन कर कालगत हुआ हो, अथवा मास-मास की तपस्या करने वाला महान् तपस्वी हो तो शव को रात्रि के समय नहीं ले जाना चाहिए। इसी प्रकार यदि सफेद कपड़ों का अभाव हो, अथवा राजा अपने अन्तःपुर के साथ तथा पुरस्वामी नगर में प्रवेश कर रहा हो अथवा वह भट, भोजिक आदि के विशाल समूह के साथ नगर के बाहर जा रहा हो, उस समय नगर के द्वार लोगों से आकीर्ण रहते हैं, अतः शव को दिन में नहीं ले जाना चाहिए। रात्रि में उसका निर्हरण करना चाहिए। साधु को कालगत होते ही, जब तक कि वायु से सारा शरीर अकड़ न जाए, उसके हाथ और पैरों को एकदम सीधे लम्बे फैला दें, और मुंह तथा आंखों के पुटों को बंद कर दें। साधु के शव को देखकर मुनि विषाद न करें किन्तु उसका विधि से व्युत्सर्जन करे। वहां यदि आचार्य हों तो वे सारी विधि का निर्वाह करें। उनके अभाव में गीतार्थ मुनि, उसके अभाव में अगीतार्थ मुनि जिसको मृतक की विधि का पूर्व अनुभव १. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५४६६-५५६५ । २. व्यवहार, उद्देशक १०, भाष्यगाथा ४२०-४५६ । ३. आवश्यकचूणि, उत्तरभाग, पृष्ठ १०२-१०६ । ४. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५०७ : आसन्न मज्झ दूरे वाधातठ्ठा तु थंडिले तिन्नि । खेत्तुदय-हरिय-पाणा, णिविट्ठमादी व वाघाए । ५. बृहत्कल्प के वृत्तिकार ने ‘महानिनाद' का अर्थ महाजनों द्वारा ज्ञात किया है। किन्तु चूणि तथा विशेषणि में इसका अर्थ महान्निनाद (कोलाहल) किया है-देखो बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५१६, वृत्ति, भाग ५, पृष्ठ १४६३ पर पादटिप्पण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy