________________
ठाणं (स्थान)
स्थान ६ : टि०२
किन्तु आज इन परंपराओं का प्रचलन नहीं है, अतः इनका हार्द समझ पाना अत्यन्त कठिन है। इन परंपराओं का विस्तृत उल्लेख बृहत्कल्पभाष्य तथा व्यवहारभाष्य में प्राप्त है। उनके संदर्भ में 'उपेक्षा' का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
बृहत्कल्पभाष्य में इस प्रसंग में आए हुए बंधन और छेदन का अर्थ इस प्रकार है
बंधन ---मृतक के दोनों पैरों के दोनों अंगूठे तथा दोनों हाथों के दोनों अंगूठे---चारों अंगूठों को रस्सी से बांधना तथा मुखवस्त्रिका से मुंह को ढंकना।
छेदन-मृतक के अक्षत देह में अंगुली के बीच के पर्व का कुछ छेदन करना।
व्यापार उपेक्षा का यह विस्तृत अर्थ है। अव्यापार उपेक्षा का तात्पर्य स्पष्ट नहीं है। भाष्यों में भी उसका कोई विवरण प्राप्त नहीं है। प्राचीन काल में मृतक मुनि के संबंधी किस प्रकार से मृतक मुनि का सत्कार करते थे, यह ज्ञात नहीं है।
किन्तु यह संभव है कि अपने संबंधी मुनि के कालगत होने पर गृहस्थ मरण-महोत्सव आदि मनाते हों, मृतक के शरीर पर सुगंधित द्रव्य आदि चढ़ाते हों तथा पूर्ण साज-सज्जा से शव-यात्रा निकालते हों।
४. शव के पास रात्रिजागरण-प्राचीन विधि के अनुसार जो मुनि निद्राजयी उपायकुशल, महापराक्रमी, धैर्यसंपन्न, कृतकरण (उस विधि के ज्ञाता), अप्रमादी और अभीरु होते थे, वे ही मृतक के पास बैठकर रात्रिजागरण करते थे।
रात्रि में वे मुनि परस्पर धर्मकथा करते अथवा उपस्थित श्रावकों को धर्मचर्चा सुनाते अथवा स्वयं सूत्र या धार्मिक आख्यानक का स्वाध्याय मधुर और उच्चस्वर से करते थे। वृत्तिकार ने यहां दो पाठान्तरों की सूचना दी है-'भयमाणा और अवसामेमाणा' । ये पाठान्तर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । इनके पीछे एक पुष्ट परंपरा का संकेत है।
__ शव के पास रात्रिजागरण करनेवाला भयभीत न हो। वह अत्यन्त अभय और धैर्यशाली हो तथा उपरोक्त गुणों से युक्त हो।
दूसरा पाठान्तर है 'अवसामेमाणा' । इसका अर्थ है--उपशमन करनेवाला। इसके पीछे रही अर्थ-परंपरा इस प्रकार
शव का परिष्ठापन करने के बाद यदि वह व्यन्तराधिष्ठित होकर दो-तीन बार उपाश्रय में आ जाए तो मुनियों को अपने-अपने तपयोग की वृद्धि करनी चाहिए। इस प्रकार योग-परिवृद्धि करने पर भी वह व्यन्तराधिष्ठित मृतक वहां आए तो मुनि अपने बाएं हाथ में मूत्र लेकर उसका सिंचन करे और कहे-'अरे गुह्यक ! सचेत हो, सचेत हो । मूढ़ मत हो, प्रमाद मत कर।'
इतना करने पर भी वह गुह्यक एक, दो या उपस्थित सभी श्रमणों के नाम बताए तो उन-उन नाम वाले साधुओं को लुंचन करा लेना चाहिए और पांच दिन का उपवास करना चाहिए। जो इतना तप न कर सकें, वे एक, दो, तीन, चार उपवास करें। यह भी न करने पर गण से अलग होकर विहरण करें। उस उपद्रव के निवारण के लिए अजितनाथ और शांतिनाथ का स्तवन करें। यह उपशमन की विधि है।'
५. मृतक के संबंधियों को जताना—यह विधि रही है कि जो मुनि कालगत हुआ है और उसके ज्ञातिजन उस नगर में हैं तो उनको उसकी मृत्यु की सूचना देनी चाहिए। अन्यथा वे ऐसा कह सकते हैं कि हमें बिना पूछे ही आपने शव का परिष्ठापन कैसे कर दिया? वे कलह आदि उत्पन्न कर सकते हैं।
१. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५२४ :
करपायंग? दोरेण बंधिउं पुत्तीए मुंह छाए।
अक्खयदेहे खणणं अंगुलिविच्चे ण बाहिरतो ।। २. (क) बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५२२, ५५२३ :
जितणिदुवायकुसला, ओरस्सबली य सत्तजुत्ता य । कतकरण अप्पमादी, अभीरुगा जागरंति तहिं ।।
जागरणट्ठाए तहिं, अन्नैसि वा वि तत्थ धम्मकहा ।
सुत्तं धम्मकहं बा, मधुरगिरो उच्चसद्देणं । (ख) आवश्यकचूणि, उत्तरभाग, पृष्ठ १०४ । ३. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३३५ : पाठान्तरेण "भयमाणत्ति वा,"
उवसामेमाणति । ४. बहत्कल्पभाष्य, गाथा ५५४४-५५४६ !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org