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________________ ठाणं (स्थान) ६८५ विस्तार नहीं होता । अगीतार्थं व्यक्ति बालवृद्धाकुलगच्छ का सम्यक् प्रवर्तन नहीं कर पाता । ' इसलिए उसकी चौथी योग्यता 'बहुश्रुतता' है। ५ – शक्ति – गणनायक को शक्तिसम्पन्न होना चाहिए। उसकी शक्तिसंपन्नता के चार अवयव हैं— १. शरीर से स्वस्थ व दृढ़संहनन वाला होना । २. मंत्र के विधि-विधानों का ज्ञाता तथा अनेक मंत्रों की सिद्धियों से संपन्न । ३. तंत्र की सिद्धियों से संपन्न । ४. परिवार से संपन्न अर्थात् विशिष्ट शिष्यसंपदा से युक्त; विविध विषयों में निष्णात शिष्यों से परिवृत । * इसलिए उसकी पांचवीं योग्यता 'शक्ति' है । ६. अल्पाधिकरणता - अधिकरण का अर्थ है- कलह या विग्रह। जो पुरुष स्वपक्ष या परपक्ष के साथ कलह करता रहता है उसका गौरव नहीं बढ़ता। जिसके प्रति गुरुत्व की भावना नहीं होती वह गण को लाभान्वित नहीं कर सकता। इसलिए गणी की छठी योग्यता अकलह ' ( प्रशान्त भाव) है । २. (सू० ३) प्रस्तुत सूत्र में कालगत निग्रंथ अथवा निग्रंथी की निर्हरण क्रिया का उल्लेख है। इसमें छह बातों का निर्देश है१. मृतक को उपाश्रय से बाहर लाकर रखना । किसी साधु के कालगत हो जाने पर कुछेक विधियों का पालन कर उसे उपाश्रय से बाहर लाकर परिस्थापित कर देना । २. मृतक को उपाश्रय से बहिर्भाग से बस्ती के बाहर ले जाना साधु की उपस्थिति में मृतक का वहन साधु को ही करना चाहिए। इसकी विधि निम्न विवरण में द्रष्टव्य है । स्थान ६ : टि०२ ३. उपेक्षा — वृत्तिकार ने यहां उपेक्षा के दो प्रकारों की सूचना दी है १. व्यापार की उपेक्षा । २. अव्यापार की उपेक्षा । उन्होंने प्रसंगवश उपेक्षा के अर्थ भी भिन्न-भिन्न किए हैं। व्यापार उपेक्षा में उपेक्षा का अर्थ प्रवृत्ति और अव्यापार उपेक्षा में उपेक्षा का अर्थ उदासीन भाव किया है। (१) व्यापार की उपेक्षा का अर्थ है- मृतक विषयक छेदन, बंधन आदि क्रियाएं जो परंपरा से प्रसिद्ध हैं, उनमें प्रवृत्त होना । (२) अव्यापार की उपेक्षा का अर्थ है मृतक के संबंधियों द्वारा किए जाने वाले सत्कार की उपेक्षा करना - उसमें उदासीन रहना । यह अर्थ बहुत ही संक्षिप्त है । वृत्तिकार के समय में ये बंधन और छेदन की परंपराएं प्रचलित रही हों, १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३३५ : बहु-प्रभूतं श्रुतं - सूत्रार्थरूपं यस्य तत्तथा, अन्यथा हि गणानुपकारी स्थात्, उक्तं च"सीसाण कुणइ कह सो ताविहो हंदि नाणमाईणं । अहिया हियसंपत्ति संसारुच्छेयणं परमं ॥ कह सो जयउ अगीओ कह वा कुणउ अगोयनिस्साए । कह वा करेउ गच्छं सबालवृड्डाउलं सो उ ।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३३५ : शक्तिमत् शरीरमन्त्रतन्त्रपरिवारादिसामर्थ्ययुक्तं तद्धि विविधास्वापत्सु गणस्यात्मनश्च निस्तारकं भवतीति । Jain Education International ३ वही पत्र ३३५ अपाहिगरणन्ति अल्प- अविद्यमानमधिकरणं स्वपक्षपरपक्षविषयो विग्रहो यस्य तत्तथा तद्धनुवर्त्तकतया गणस्याहानिकारकं भवतीति । ४. स्थानांगवृत्ति पत्र ३३५ उपेक्षा द्विविधा व्यापारोपेक्षा अव्यापारोपेक्षा च तत्र व्यापारोपेक्षया तमुपेक्षमाणाः, तद्विषयायां छेदनबन्धनादिकायां समयप्रसिद्ध क्रियायां व्याप्रियमाणा इत्यर्थः अव्यापारोपेक्षया च मृतकस्वजनादिभिरत्तं सत्क्रियमाणमुपेक्षमाणाः तनोदासीना इत्यर्थः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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