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________________ टिप्पणियाँ स्थान-६ १. (सू० १) प्रस्तुत सूत्र में गण धारण करनेवाले व्यक्ति के लिए छह कसौटियां निर्दिष्ट हैं ---- १-श्रद्धा--अश्रद्धावान् पुरुष मर्यादानिष्ठ नहीं हो सकता। जो स्वयं मर्यादानिष्ठ नहीं होता वह दूसरों को मर्यादा में स्थापित नहीं कर सकता। इसलिए गणी की प्रथम योग्यता 'श्रद्धा'--मर्यादाओं के प्रति विश्वास है। २-सत्य-इसके दो अर्थ हैं १. यथार्थवचन । २. प्रतिज्ञा के निर्वाह में समर्थ । यथार्थभाषी पुरुष ही यथार्थ का प्रतिपादन कर सकता है। जो की हुई प्रतिज्ञा के निर्वाह में समर्थ होता है, वही दूसरों में विश्वास उत्पन्न कर सकता है। गणी दूसरों के लिए विश्वस्त होना चाहिए। इसलिए उसकी दूसरी योग्यता 'सत्य' है। ३--- मेधा--आगम साहित्य में मेधावी के दो अर्थ प्राप्त होते हैं १. मर्यादावान् । २. श्रुतग्रहण करने की शक्ति से संपन्न । जो व्यक्ति स्वयं मर्यादावान् है, वही दूसरों को मर्यादा में रख सकता है और वही व्यक्ति अपने गण में मर्यादाओं का अक्षुण्ण पालन करा सकता है। जो व्यक्ति तीक्ष्ण बुद्धि से संपन्न होता है, वही श्रुतग्रहण करने में समर्थ होता है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरों से श्रुतग्रहण कर अपने शिष्यों को उसका अध्यापन कराने में समर्थ हो सकता है। इस प्रकार वह स्वयं अनेक विषयों का ज्ञाता होकर अपने गण में शिष्यों को भी इसी ओर प्रेरित कर सकता है। इसलिए उसकी तीसरी योग्यता 'मेधा' है। ४-बहुश्रुतता-जैन परम्परा में 'बहुश्रुत' व्यक्ति का बहुत समादर रहा है। उसे गण का एकमात्र उपष्टम्भ माना है। उत्तराध्ययन सूत्र में 'बहुस्सुयपूआ' नाम का ग्यारहवां अध्ययन है। उसमें बहुश्रुत की महिमा बतलाई गई है। उत्तरवर्ती व्याख्या-ग्रंथों में भी बहुश्रुत व्यक्ति के विषय में अनेक विशेष नियम उपलब्ध होते हैं।' प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में बताया गया है कि जो गणनायक बहुश्रुत नहीं होता, वह गण का अनुपकारी होता है। वह अपने शिष्यों की ज्ञानसंपदा कैसे बढ़ा सकता है ? जो गण या कुल अगीतार्थ (अबहुश्रुत) की निश्रा में रहता है, उसका १. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३३५ : सद्धि ति श्रद्धावान्, अश्रद्धावतो हि स्वयममर्यादावत्तितया परेषां मर्यादास्थापनायामसमर्थत्वात् गणधारणानहत्वम् । २. वही. पत्र ३३५ : सत्यं सद्भ्यो-जीवेभ्यो हिततया प्रतिज्ञात शूरतया वा, एबंभूतो हि पुरुषो गणपालक आदेयश्च स्यादिति । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३३५ : मेधावि मर्यादया धावतीत्येवंशीलमिति निरुक्तिवशात्, एवंभूतो हि गणस्य मर्यादाप्रवर्तको भवति, अथवा मेधाश्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वत्, एवंभूतो हि श्रुत मन्यतो झगिति गृहीत्वा शिष्याध्यापने समर्थो भवतीति । ४. देखो-व्यवहार, उद्देशक १०, सून १५; भाष्य गाथा ४६-४६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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