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________________ ६८८ ठाणं (स्थान) स्थान ६: टि०२ हो, उसके अभाव में धैर्य आदि गुणों से संपन्न मुनि से सारी विधि कराई जाए। किन्तु शोक से या भय से विधि में प्रमाद न करे। शव के पास बैठे मूनि रात्रि जागरण करें जो निद्राजयी, उपायकुशल, शक्तिसंपन्न, धैर्यशाली, कृतकरण, अप्रमादी तथा अभीरु हों। शव के पास बैठकर वे उच्च स्वर से धर्मकथा करें। मृतक के हाथ और पैरों के अंगूठों को रस्सी से बांधकर उसके मुंह को मुखवस्त्रिका से ढंक दें तथा मृतक के अक्षत देह में उसकी अंगुली को मध्य से छेद डालें। फिर यदि शरीर में कोई व्यन्तर या प्रत्यनीक देवता प्रवेश कर दे तो बाएं हाथ में मूत्र लेकर मृतक के शरीर का सिंचन करते हुए ऐसा कहे - हे गुह्यक ! सचेत हो, सचेत हो। मूढ़ मत बन, प्रमाद मत कर, संस्तारक से मत उठ। उस समय उस मृत कलेवर में प्रवेश कर कोई दूसरा अपने विकराल रूप से डराए, अट्टहास करे, अथवा भयंकर शब्द करे तो भी उपस्थित मनि उससे भयभीत न हों और विधि से शव का व्युत्सर्ग करें। शव के परिष्ठापन के लिए नैऋत कोण सबसे श्रेष्ठ है। उसके अभाव में दक्षिण दिशा, उसके अभाव में पश्चिम, उसके अभाव में आग्नेयी (दक्षिण-पूर्व) उसके अभाव में वायवी (पश्चिम-उत्तर), उसके अभाव में पूर्व, उसके अभाव में उत्तर-पूर्व दिशा का उपयोग करे। इन दिशाओं में परिष्ठापन करने से अनेक हानि-लाभ होते हैं। नैऋत में परिष्ठापन करने से अन्न-पान और वस्त्र का प्रचर लाभ होता है और समूचे संघ में समाधि होती है। दक्षिण में परिष्ठापन करने से अन्न-पान का अभाव होता है, पश्चिम में करने से उपकरणों का अलाभ होता है, आग्नेयी में करने से साधुओं में परस्पर तू-तू मैं-मैं होती है, वायवी में करने से साधुओं में परस्सर तथा गृहस्थ और अन्य तीथिकों के साथ कलह बढ़ता है, पूर्व में करने से गण-भेद और चारित्र-भेद होता है, उत्तर में करने से रोग बढ़ता है और उत्तर-पूर्व में करने से दूसरा कोई साधु (निकट काल में) मृत्यु को प्राप्त होता है।' शव को परिष्टापन के लिए ले जाते समय एक मुनि पात्र में शुद्ध पानक ले तथा उसमें चार अंगुल प्रमाण समान रूप से काटे हुए कुश लेकर, पीछे मुड़कर न देखते हुए, स्थंडिल की ओर गमन करे! यदि उस समय दर्भ प्राप्त न हो तो उसके स्थान पर चूर्ण अथवा केशर का उपयोग किया जा सकता है। यदि वहां कोई गृहस्थ हो तो शव को वहां रखकर हाथ-पैर धोएं तथा अन्यान्य विधियों का भी पालन करें, जिससे कि प्रवचन का उड्डाह न हो। शव को उपाथय से निकालते समय या उसका परिष्ठापन करते समय उसका शिर गांव की ओर करे। गांव की ओर पैर रखने से अमंगल समझा जाता है। स्थंडिल भूमि में पहुंच कर एक मुनि उस कुश से संस्तारक तैयार करे। वह संस्तारक सर्वत्र होना चाहिए, ऊंचानीचा नहीं होना चाहिए। यदि कुश न मिले तो चूर्ण या नागकेशर के द्वारा अव्यवच्छिन्न रूप से ककार और उसके नीचे तकार बनाए। चूर्ण या नागकेशर के अभाव में किसी प्रलेप आदि के द्वारा भी ऐसा किया जा सकता है। यह विधि संपन्न कर शव को उस पर परिष्ठापित कर और उसके पास रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टक रखने चाहिए। इन यथाजात चिन्हों के न रखने से कालगत साधु मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है तथा चिन्हों के अभाव में राजा के पास जाकर कोई शिकायत कर सकता है कि एक मृत शव पड़ा है ---यह सुनकर राजा कुपित होकर, आसपास के दो-तीन गांवों का उच्छेद भी कर सकता है। १. बहतकल्पभाष्य, गाथा ५५०५, ५५०६: दिस अवरदक्षिणा दक्षिणा य अवरा य दक्खिणापुब्वा । अवरुत्तरा य पुवा, उत्तर पुवुत्तरा चेव ।। समाही ब भत्त-पाणे, उवकरणे तुमंतुमा य कलहो य । भेदो गेलन्न वा, चरिमा पुण कड्डए अण्णं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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