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________________ ठाणं (स्थान) ६८६ स्थान ६ : टि०२ स्थंडिल भूमि में मृतक का व्युत्सर्जन कर मुनि वहीं कायोत्सर्ग न करे किन्तु उपाश्रय में आकर आचार्य के पास, परिष्ठापन में कोई अविधि हुई हो तो उसकी आलोचना करे। यदि कालगत मुनि के शरीर में यक्ष प्रविष्ट हो जाए और शव उठ खड़ा हो तो मुनियों को इस विधि का पालन करना चाहिए-यदि शव उपाश्रय में ही उठ जाए तो उपाश्रय को छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार वह यदि मोहल्ले में उठे तो मोहल्ले को, गली में उठे तो गली को, गांव के बीच में उठे तो ग्रामार्द्ध को, ग्रामद्वार में उठे तो गांव को, गांव और उद्यान के बीच में उठे तो मंडल को, उद्यान में उठे तो देशखंड को, उद्यान और स्वाध्याय भूमि के बीच में उठे तो देश को तथा स्वाध्याय भूमि में उठे तो राज्य को छोड़ देना चाहिए। शव का परिष्ठापन कर गीतार्थ मुनि एक ओर ठहर कर मुहूर्त मात्र प्रतीक्षा करे कि कहीं कालगत मुनि पुनः उठ न जाए। परिष्ठापन करने के बाद शव के उठ जाने पर मुनि को क्या करना चाहिए-इस विधि के निदर्शन में बृहत्कल्पभाष्य में टीकाकार वृद्धसंप्रदाय का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि-- स्वाध्याय भूमि में शव का परिष्ठापन करने पर यदि वह किसी कारणवश उठे और वहीं पुनः गिर जाए तो मुनि को उपाश्रय छोड़ देना चाहिए। यदि वह उठा हुआ शव स्वाध्याय-भूमि और उद्यान के बीच में गिरे तो निवेसन (मोहल्ले) का त्याग कर दे। यदि उद्यान में गिरे तो उस गृहपंवित (साही) को छोड़ दे। यदि उद्यान और गांव के बीच में गिरे तो ग्रामार्द्ध को छोड़ दे। यदि गांव के द्वार पर गिरे तो गांव को, गांव के मध्य गिरे तो मंडल को, गृहपंक्ति के बीच गिरे तो देशखंड को, निवेसन में गिरे तो देश को और वसति में गिरे तो राज्य को छोड़ दे। मृतक साधु के उच्चारपात्र, प्रश्रवणपात्र और श्लेष्मपात्र तथा सभी प्रकार के संस्तारकों का परिष्ठापन कर देना चाहिए और यदि कोई बीमार मुनि हो तो उसके लिए इनका उपयोग भी किया जा सकता है। यदि मुनि महामारी आदि किसी छूत की बीमारी से मरा हो तो, जिस संस्तारक से उसे ले जाया जाए, उसके टुकड़ेटुकड़े कर परिष्ठापन कर दें। इसी प्रकार उसके अन्य उपकरण, जो उसके शरीर छुए गए हों, उनका भी परिष्ठापन कर दें। यदि साधु की मृत्यु महामारी आदि से न होकर, स्वाभाविक रूप से हुई हो तो मुहूर्त मात्र तक उसके शव को उपाश्रय में ही रखें। गांव के बाहर परिष्ठापित शव को देखने के लिए निमित्तज्ञ मुनि दूसरे दिन जाएं और शुभ-अशुभ का निर्णय करें। जिस दिशा में मृतक का शरीर शृगाल आदि के द्वारा आकर्षित होता है उस दिशा में सुभिक्ष होता है और उस ओर विहार भी सुखपूर्वक हो सकता है। जितने दिन तक वह कलेवर जिस दिशा में अक्षतरूप से स्थित होता है, उस दिशा में उतने ही वर्षों तक सुभिक्ष होता है तथा पर-चक्र के उपद्रवों का अभाव रहता है। इससे विपरीत यदि उसका शरीर क्षत हो जाता है तो उस दिशा में दुभिक्ष तथा उपद्रव उत्पन्न होते हैं। यदि वह मृतक शरीर सीधा रहता है तो सर्वत्र सुभिक्ष और सुखविहार होता है। यह निमित्त-बोध केवल तपस्वी, आचार्य तथा लम्बे समय के अनशन से कालगत होनेवाले, मुनियों से ही प्राप्त होता है। सामान्य मुनियों के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि साधु रात्रि में कालगत हुआ हो तो वहनकाष्ठ की आज्ञा लेने के लिए शय्यातर को जगाए। किन्तु यदि एक ही मुनि शव को उठाकर ले जाने में समर्थ हो तो वहनकाष्ठ की कोई आवश्यकता नहीं रहती। अन्यथा दो, तीन, चार मुनि बहनकाष्ठ से मृतक को ले जाकर पुनः उस वहनकाष्ठ को यथास्थान लाकर रख दे।' ___ व्यवहारभाष्य में स्थंडिल के विषय में जानकारी देते हुए लिखा है कि शिलातल या शिलातल जैसा भूमिभाग प्रशस्त स्थंडिल है । अथवा जिस स्थान में गाएं बैटती हों, बकरी आदि रहती हों, जो स्थान दग्ध हो, जिस वृक्ष-समूह के नीचे बड़े-बड़े सार्थ विश्राम करते हों, वैसे स्थान स्थंडिल के योग्य होते हैं।' १. बृहत्कल्पभाष्य, गाया ५५४३ वृत्ति, भाग ५, पन्न १४६८ । २. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५४६६-५५६५। ३. व्यवहारभाष्य, ७।४४१: सिलायलं पसत्थं तु जत्थत्याविफासुयं।झाम थंडिलमादिच्चबिबादीण समीपे वा ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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