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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि० ३
कहीं-कहीं बहुत समय से आचीर्ण कुछ परंपराएं होती हैं । कुछ गांव या नगरों में ऐसी मर्यादा होती है कि अमुक प्रदेश में ही मृतक का दाह-संस्कार होना चाहिए। कहीं वर्षा ऋतु में नदी के प्रवाह से स्थंडिल- प्रदेश बह जाता है, वहां स्थंडिल- प्रदेश की सुविधा नहीं होती । आनदपुर में उत्तरदिशा में ही मृत मुनियों का परिष्ठापन किया जाता था । '
इन सभी स्थानों में उस-उस मर्यादा का पालन करने में भी विधि का अपक्रमण नहीं होता। किसी गांव में सारा क्षेत्र यदि खेतों में विभक्त कर दिया गया, और वहां खेतों की सीमा में परिष्ठापन की आज्ञा न मिले तो मुनि शव को राजपथ में अथवा दो गांवों के बीच की सीमा में परिष्ठापित करे। यदि इन स्थानों का अभाव हो तो सामान्य श्मशान में मृतक को ले जाए। और यदि वहां श्मशान पालक द्वार परही शव को रोक ले और अपना 'कर' मांगे तो वहां से हटकर ऐसे श्मशान में जाएं जहां अनाथ व्यक्तियों का दाह संस्कार होता हो । यदि ऐसा स्थान न मिले तो पुनः नगर के उसी श्मशान पर जाए और श्मशान - पालक को उपदेश द्वारा समझाए। यदि वह न माने तो उसे मृतक के वस्त्र देकर शान्त करे। फिर भी यदि वह प्रवेश का निषेध करे तो नए वस्त्र लाने के लिए गांव में जाए। नए वस्त्र न मिलने पर राजा के पास जाकर यह शिकायत करे कि 'आपका श्मशानपालक मुनि का दाह संस्कार करने नहीं देता। हम अकिंचन हैं। उसे 'कर' कैसे दें ? यदि राजा कहे कि श्मशानपालन अपने कर्त्तव्य में स्वतंत्र है । वह जैसा कहे वैसा आप करें, तो मुनि अस्थंडिल हरितकाय आदि के ऊपर धर्मास्तिकाय की कल्पना कर मृतक के शरीर का परिष्ठापन कर दे ।
साधु यदि विद्यमान हों तो शव को साधु ही ले जाएं। उनके न होने पर मृतक को गृहस्थ ले जाएं अथवा बैलगाड़ी द्वारा उसे श्मशान तक पहुंचाए अथवा मल्लों के द्वारा वह कार्य सम्पन्न कराएं। यदि पाण-चांडाल आदि शव को उठाते हैं। तो प्रवचन का उड्डाह होता है।
एक साधु मृतक को वहन करने में असमर्थ हो तो गाँव में दूसरे संविग्न असांभोगिक मुनि हों तो उनकी सहायता ले । उनके अभाव में पार्श्वस्थ मुनियों का या सारूपिक या सिद्धपुत्र या श्रावकों का सहयोग ले । यदि ये न मिलें तो स्त्रियों की सहायता ले। इनका योग न मिलने पर मल्लगण, हस्तिपालगण, कुंभकारगण से सहयोग ले । यदि यह भी संभव न हो तो भोजिक ( ग्राम- महत्तर, ग्रामपंच) से सहयोग मांगे । उसके निषेध करने पर संवर ( कचरा उठाने वाले), नख-शोधक, स्नानकारक और क्षालप्रक्षालकों से सहयोग ले । यदि वे बिना मूल्य मृतक को ढोने से इन्कार करें तो उन्हें वस्त्रों से संतुष्ट कर अपना कार्य संपन्न कराएं।
इस प्रकार परिष्ठापन विधि को संपन्न कर मुनि कालगत साधु के उपकरण ले आचार्य के पास आए और उन्हें सारी चीज सौंप दे। आचार्य उन चीजों को देखकर पुनः उसी मुनि को दें तब मुनि 'मस्तकेन वंदे' इस प्रकार कहता हुआ आचार्य के वचन को स्वीकार करे ।
मुनि शव को जिस मार्ग से ले जाए उसी मार्ग से लौटकर न आए किन्तु दूसरा मार्ग ले । स्थंडिल भूमि में अविधि परिष्ठापन का कायोत्सर्ग न करे किन्तु गुरु के पास आकर कायोत्सर्ग करे । स्वाध्याय और तप की मार्गणा करे। शव का परिष्ठापन कर लौटते समय प्रदक्षिणा न दे। मृतक के उच्चार आदि के पात्रों का विसर्जन करे। दूसरे दिन यह जानने के लिए शव को देखने जाए कि उसकी गति शुभ हुई है या अशुभ तथा शव के लक्षण कैसे हैं ।
३. सर्वभावेन (सूत्र ४)
नंदीसूत में केवलज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों का विषय समान बतलाया गया है। दोनों में अन्तर इतना सा है कि
१. व्यवहारभाष्य ७ । ४४२ वृत्ति - केषुचित् क्षेत्रेषु दिक्षु बहुकालाचीर्णाः कल्पा भवन्ति । यथा आनन्दपुरे उत्तरस्यां दिशि संयताः परिष्ठापयन्ति ।
२. व्यवहार, उद्देशक ७, भाष्यगाथा ४२०-४५६ ।
३. व्यवहार, उद्देशक ७, भाष्यगाथा ४२०, वृत्ति पत्र ७२ ।
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४. नंदी सूत्र ३३ दव्वओ णं केवलनाणी सव्वदव्वाई जाणइ
पासइ, खेत्तओ णं केवलनाणी सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ, कालओ णं केवलनाणी सव्वं कालं जाणइ पासइ, भावओ णं केवलनाणी सव्वे भावे जाणइ पासइ ।
नंदी सूत्र १२७ : दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सन्वदन्बाइ जाणइ पासइभावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सब्वे भावे जाणइ पासइ ।
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