SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 502
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ४६१ वाविया, परिवाविया, णिदिता, वापिता, परिवापिता, निदाता, परिणिदिता । परिनिदाता । एवामेव चउव्विहा पव्वज्जा एवमेव चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, पण्णत्ता, तं जहा तद्यथा— वाविता, परिवाविता, णिदिता, वापिता, परिवापिता, निदाता, परिणिदिता । परिनिदाता । जहा - ५७७. चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता, तं चतुविधा प्रव्रज्या प्रज्ञप्ता, तद्यथापुञ्जितधान्यसमाना, विसरितधान्यपुंजित माणा, धणविरल्लित - समाना, विक्षिप्तधान्यस माना, समाणा, धण्णविक्खित्तसमाणा, सङ्कर्षितधान्यसमाना । धण्णसंकट्टितस माणा । सण्णा-पदं संज्ञा-पदम् ५७८. चत्तारि सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रः संज्ञाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा— जहा आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा । ५७६. चह ठाणेह आहारसण्णा समुपज्जति तं जहा - ओमको ताए, छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं । ५८०. चह ठाणेह समुपज्जति तं जहा Jain Education International आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा । स्थान ४ : सूत्र ५७७-५८० १. उप्त -- एक बार बोई हुई, २. पर्युप्त-एक बार बोए हुए धान्य को दो-तीन बार उखाड़ उखाड़ कर लगाए जाए, जैसेचावल आदि, ३. निदात - एक बार घास आदि की कटाई, ४. परिनिदात - बारबार घास आदि की कटाई । इसी प्रकार प्रव्रज्या भी चार प्रकार की होती है १. उप्त - सामायिक चारित्र में आरोपित करना, २ . पर्युप्त - महाव्रतों में आरोपित करना, ३ . निदात एक बार आलोचना, ४. परिनिदात -- बार-बार आलोचना । ५७७. प्रव्रज्या चार प्रकार की होती है १. साफ किए हुए धान्य-पुंज के समान - आलोचना-रहित, २. साफ किए हुए, किन्तु बिखरे हुए धान्य के समान अल्प अतिचार वाली, ३. बैलों आदि के पैरों से कुचले हुए धान्य के समान - बहुअतिचार वाली, ४. खलिहान पर लाये हुए धान्य के समान - बहुतरअतिचार वाली । संज्ञा - पद ५७८. संज्ञाएं चार होती हैं For Private & Personal Use Only १. आहार संज्ञा, २. भय संज्ञा ३. मैथुन संज्ञा, ४. परिग्रह संज्ञा । है— चतुभिः स्थानैः आहारसंज्ञा समुत्पद्यते, ५७६. चार स्थानों से आहार-संज्ञा उत्पन्न तद्यथा— अवमकोष्ठतया, क्षुधावेदनीयस्य कर्मणः उदयेन, मत्या, तदर्थोपयोगेन । १. पेट के खाली हो जाने से, २. क्षुधावेदनीय कर्म के उदय होने से, ३. आहार की बात सुनने से उत्पन्न मति से, ४. आहार के विषय में सतत चिंतन करते रहने से । भयण्णा चतुभिः स्थानैः भयसंज्ञा समुत्पद्यते ५८०. चार स्थानों से भय-संज्ञा उत्पन्न होती तद्यथा है— www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy