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________________ ठाणं (स्थान) ५३४ स्थान ४:टि०१२२-१२४ करपत्र (करौत) छेद्य वस्तु को कालक्षेप (गमनागमन) से छिन्न करता है। जो पुरुष भावना के अभ्यास से स्नेहपाश को छिन्न करता है, उसकी तुलना करपत्र से की गई है । जैसे-शालिभद्र ने क्रमशः स्नेहबंध को छिन्न किया था।' क्षुरपत्र (उस्तरा) बालों को काट सकता है। इसी प्रकार जो पुरुष स्नेहबंध का थोड़ा छेद कर सकता है, वह क्षुरपत्रके समान होता है। कदम्बचीरिका (साधारण शस्त्र या घास की तीखी नोक) में छेदक शक्ति बहुत ही अल्प होती है। इसी प्रकार जो पुरुष स्नेहबंध के छेद का मनोरथ मात्र करता है, वह कदम्बचीरिका के समान होता है। १२२ (सू० ५५१) वृत्तिकार ने बताया है कि समुद्गपक्षी और विततपक्षी-ये दोनों भरतक्षेत्र में नहीं होते, किन्तु सुदूरवती द्वीपसमुद्रों में होते हैं। १२३ (सू० ५५३) कुछ पक्षी धृष्ट या अज्ञ होने के कारण नीड से उतर सकते हैं, किंतु शिशु होने के कारण परिव्रजन नहीं कर सकतेइधर उधर घूम नहीं सकते। कुछ पक्षी पुष्ट होने के कारण परिव्रजन कर सकते हैं, पर भीरु होने के कारण नीड से उतर नहीं सकते। कुछ पक्षी अभय होने के कारण नीड से उतर सकते हैं और पुष्ट होने के कारण परिव्रजन भी कर सकते हैं। कुछ पक्षी अति शिशु होने के कारण न नीड से उतर सकते हैं और न परिव्रजन ही कर सकते हैं। कुछ भिक्ष भोजन आदि के अर्थी होने के कारण भिक्षाचर्या के लिए जाते हैं, पर ग्लान, आलसी या लज्जाल होने के कारण परिव्रजन नहीं कर सकते---घूम नहीं सकते। कुछ भिक्षु भिक्षा के लिए परिव्रजन कर सकते हैं, पर सूत्र और अर्थ के अध्ययन में आसक्त होने के कारण भिक्ष के लिए जा नहीं सकते। १२४ (सू० ५५६) प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त बुध शब्द के दो अर्थ किए जा सकते हैंविवेकवान् और आचारवान् । कुछ पुरुष विवेक से भी बुध होते हैं और आचार से भी बुध होते हैं । कुछ पुरुष विवेक से बुध होते हैं, किन्तु आचार से बुध नहीं होते हैं। कुछ पुरुष विवेक से अबुध होते हैं, किन्तु आचार से बुध होते हैं। कुछ पुरुष विवेक से भी अबुध होते हैं और आचार से भी अबुध होते हैं। वृत्तिकार ने 'आचारवान् पंडित होता है' इसके समर्थन में एक श्लोक उद्धृत किया है.--- पठकः पाठकश्चैव, ये चान्ये तत्त्वचिन्तकाः । सर्वे व्यसनिनो राजन् ! यः क्रियावान् स पण्डितः ।। पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले और तत्त्व का चिन्तन करने वाले सब व्यसनी हैं। सही अर्थ में पंडित वही है जो आचारवान् है। १. देखें- स्थानांग, १०।१५। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६ । ३, स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६ : समुद्गवत् पक्षी येषां ते समुद्गक पक्षिणः, समासान्त इन्, ते च बहिर्दीपसमुद्रेष, एवं वितत पक्षिणोऽपोति । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५६ । ५. स्थानांगवृत्ति, पत्न २६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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